________________
मोक्षमार्ग प्रकाशक - १८२
संतुष्ट न हो है, शुद्धोपयोगका उद्यमी रहें है। सो ही पंचास्तिकायव्याख्याविषे कया है- '
इयं भक्तिः केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । तीव्ररागज्वरविनोदार्थमस्थानरागनिषेधार्थ क्वचित् ज्ञानिनोऽपि भवति ।
याका अर्थ- यहु भक्ति केवल भक्ति ही है प्रधान जाकै ऐसा अज्ञानी जीवके हो है । बहुरि तीव्ररागज्वर मेटने के अर्थि वा कु-टिकाने रागनिषेधने के अर्थि कदाचित् ज्ञानीकै भी हो है ।
तहाँ वह पूछे है, ऐसे है तो ज्ञानी तैं अज्ञानीकै भक्तिकी अधिकता होती होगी।
ताका उत्तर - यथार्थपनेकी अपेक्षा तो ज्ञानीकै सांची भक्ति है अज्ञानीकै नाहीं है। अर रागभावकी अपेक्षा अज्ञानीकै श्रद्धानविषै भी मुक्तिका कारण जाननेते अति अनुराग है। ज्ञानीकै श्रद्धानविषै शुभबंधका कारण जाननेते तैसा अनुराग नाहीं है। बाह्य कदाचित् ज्ञानीकै अनुराग घना हो है, कदाचित् अज्ञानीकै हो है, ऐसा जानना। ऐसे देवभक्तिका स्वरूप दिखाया ।
अब गुरुभक्तिका स्वरूप वाकै कैसे है, सो कहिए है
गुरुभक्तिका अन्यथा रूप
केई जीव आज्ञानुसारी हैं। ते तो ए जैनके साधु हैं, हमारे गुरु हैं, तातें इनिकी भक्ति करनी, ऐसे विचारि तिनकी भक्ति करे हैं। बहुरि केई जीव परीक्षा भी करे हैं। तहां ए मुनि दया पालै हैं, शील पालै हैं, थनादि नाहीं राखे हैं, उपवासादि तप करे हैं, क्षुधादि परीषह सहै हैं, किसीसी क्रोधादि नाहीं करे हैं। उपदेश देय औरनिको धर्मविषे लगाये हैं, इत्यादि गुण विचार तिनविषै भक्तिभाव करें हैं। सो ऐसे गुण तो परमहंसादिक अन्यमती हैं, तिनविषै वा जैनी मिध्यादृष्टीनिविषै भी पाईए हैं। तातैं इनिविषे अतिव्याप्तपनो है । इनिकरि साँची परीक्षा होय नाहीं । बहुरि इनि गुणनिको विचारे हैं, तिनविषे केई जीवाश्रित हैं, केई पुद्गलाश्रित हैं, तिनका विशेष न जानता असमानजातीय मुनिपर्यायविषे एकत्व बुद्धितें मिथ्यादृष्टि ही रहे
• एकापि समर्थय जिनभक्ति दुर्गतिं निवारयितुम् ।
पुण्यानि च पूरयितुं दातुं मुक्तिश्रियं कृतिजनम् ।। १५५ उपासकाध्ययन / पं. कैलाशचन्दजी |
अर्थात् अकेली जिनभक्ति ही ज्ञानी के दुर्गति का निवारण करने में, पुण्य का संचय करने में और मुक्तिरूपी लक्ष्मी को देने में समर्थ है।
•
कर्म भक्त्या जिनेन्द्राणां क्षयं गच्छति भरत । ( प.पु. ३२ - १८३ ) हे भरत ! जिनेन्द्र की भक्ति से कर्म भय को प्राप्त हो जाते हैं।
• सुह- सुद्ध परिणामेहि कम्मक्खयाभावे तक्खयाणुववत्तीदी। ( जयधवल १ / ६ )
यदि
परिणामों से कर्मों का क्षय नहीं माना जाए तो फिर कर्मों का क्षय हो ही नहीं सकता।
•
शुभ-शुद्ध देखें वरांगचरित २२ / ३८, पं. रतनचन्द मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व-२, पृ. १४६४ - १४६७ । १. अयं हि स्थूललक्ष्यतया केवलभक्तिप्रधानस्याज्ञानिनो भवति । उपरितनभूमिकायामलब्धास्पदस्यास्थानराग- निषेधार्थं तीव्ररागज्दरविनोदार्थं वा कदाचिज्ज्ञानिनो ऽपि भवतीति ।। स. टीका गा. १३६ ।।