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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४६
तिनको मायाकरि वा लोभ दिखाय मुनिपद देना, पीछे अन्यथा प्रवृत्ति करावी, सो यह बड़ा अन्याय है। ऐसे कुगुरु का वा तिनके सेवन का निषेध किया। अब इस कथन के दृढ़ करने को शास्त्रनिकी साखि दीजिए है। तहाँ उपदेशसिद्धान्त रत्नमाला विषै ऐसा कह्या है
गुरुणो भट्टा जाया सबै थुणिऊण लिति दाणाई।
दोषणवि अमुणियसारा दूसमिसमयम्मि बुड्ढति।।३१।। कालदोषत गुरु जे हैं, ते भाट भए । भाटवत शब्दकर दातार की स्तुति करिकै दानादि ग्रहै हैं। सो इस दुखमा कालविषै दोऊ ही दातार वा पान संसारविष डूबै हैं। बहुरि तहाँ कह्या है
सप्पे दिढे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अक्खेइ।
जो चयइ कुगुरु सप्प हा मूढा भणइ तं दुटुं ।।३६ ।। याका अर्थ- सर्पको देखि कोऊ भाग, ताको तो लोक किछू भी कहै नाहीं। हाय हाय देखो, जो कुगुरु सर्पको छोर है, ताहि मूढ़ दुष्ट कहै, बुरा बोले।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अर्णसाइ देइ मरणाई।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरुसेवणं भई ।।३७।। अहो, सर्पकरि तो एक ही बार मरण होय अर कुगुरु अनंतमरण दे है-अनन्तबार जन्ममरण करावै है। ताते हे भद्र, साँप का ग्रहण तो भला अर कुगुरु का सेवन भला नाहीं । और भी गाथा तहाँ इस श्रद्धान दृढ़ करने को कारण बहुत कही हैं सो तिस ग्रन्थः जानि लेनी । बहुरि संघपवित्र ऐसा कह्या है
क्षुत्मामः किल कोपि रेकशिशुकः प्रवृज्य चैत्ये क्यथित, कृत्वा किंधन पक्षममतकलिः प्राप्तस्तवाचार्यकम् । चित्रं चैत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति,
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्व वराकीयति।। याका अर्थ- देखो, क्षुथाकार कृश कोई रंकका बालक सो कहीं चैत्यालयादिविषै दीक्षा धारि कोई पक्षकार पापरहित न होता संता आचार्यपदको प्राप्त भया। बहुरि वह चैत्यालयविषै अपने गृहवत् प्रवत है, निजगविष कुटुम्बवत् प्रवत है, आपको इन्द्रवत् महान् मान है, ज्ञानीनिको बालकवत् अज्ञानी मान है, सर्वगृहस्थनिको रंकवत् मान है सो यह बड़ा आश्चर्य भया है। बहुरि 'यैर्जातो न च पर्खितो न च न व कीतो' इत्यादि काव्य है। ताका अर्थ ऐसा है- जिनकरि जन्म न भया, बल्या नाही, मौल लिया नाहीं, देणदार भया नाही, इत्यादि कोई प्रकार सम्बन्ध नाहीं अर गृहस्थनिको वृषभवत् बहावे, जोरावरी दानादिक ले; सो हाय-हाय यहु जगत् राजाकरि रहित है, कोई न्याय पूछनेवाला नाहीं। ऐसे ही इस श्रद्धान के पोषक तहाँ काव्य हैं सो तिस ग्रन्थ तें जानना ।
यहाँ कोऊ कई- ए तो श्वेतांबरविरचित उपदेश है तिनकी साक्षी काहेको दई?