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छटा अधिकार १५३
उसको उसीके शब्दों में पढ़िए-"यथार्थ अर्थ को नहीं समझने वाले मुझ (श्रेष्ठी) मिथ्यादृष्टि को धिक्कार हो। मेरा यह अनिष्ट आचरण अयुक्त था, अनुचित था, मेरे समान दूसरा अधार्मिक नहीं है । इस समय मुझसे बढ़कर दूसरा मिथ्यादृष्टि कौन होगा जिसने उठ कर मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से सन्तुष्ट नहीं किया । जो मुनि को देखकर आसन नहीं छोड़ता है तथा देखकर उनका अपमान करता है, वह मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मैं पापी हूँ, पापकर्मा हूँ, पाप का पात्र हूँ अथवा जिनागम की श्रद्धा से दूर रहने वाला जो कोई निन्धतम है, हमें है। मैंने सर पाप अहंकार किया है !(10.९२/३२-३७) इस प्रकार अर्हद्दत्त सेठ बहुत ही खिन्न हो पश्चात्ताप से सन्तप्त हो गया । (प.पु. ९२/३१)
(३) मान्य व्रती विद्वान पूज्य डॉ. पण्डित पन्नालाल जी साहित्याचार्य, जबलपुर लिखते हैं कि मुनियों की परीक्षा करना अनुचित नहीं है परन्तु निर्णय लेने में उतावली (जल्दी) नहीं करनी चाहिए । ये मुनि वर्षाऋतु में विहार करते हैं, मात्र इतना ही देखकर उनकी भक्ति नहीं की। परन्तु बाद में आचार्य द्युति भट्टारक के कहने से उन्हें चारण ऋद्धि वाले जानकर पछताया ।
परीक्षा में इतना विचार करना पर्याप्त होता है कि ये मुनि मिथ्यात्व के पोषक तथा पंच पापों के समर्थक तो नहीं हैं ? परीक्षा में पन्थवाद का उपयोग श्रेयस्कर नहीं जान पड़ता । ( पत्र, दिनांक १९.९.९२
(४) पद्मपुराण में तो यह भी लिखा है कि "साधु में यदि यथार्थ दोष भी देखा हो तो भी जैनी को नहीं कहना चाहिए और कोई दूसरा उसे कहता भी हो तो उन्ने सब प्रकार से रोकना चाहिए ।" ये वचन सकलभूषण केवली के हैं । ( प.पु.१०६/२३२ पृ. ३१५ ज्ञानपीठ) मूल इस प्रकार है
दृष्टः सत्योऽपि दोषो न वाच्यो जिनमतश्रिता ।
उच्यमानो च चान्येन, वार्यः सर्वप्रयत्नतः ॥ .....इति श्रुत्वा मुनीन्द्रस्य भाषितं......(पदमपुराण १०६/२३२ से २३६) (५) सीता के जीव ने वेदवती नामक स्त्री की पर्याय में एक मुनि को अकेली आर्यिका के पास बैठे हुए तथा बात करते हुए देखा । फिर उस वेदवती ने लोगों के सामने उक्त मुनि की निन्दा की (कि सुन्दर स्त्री से एकान्त में बात कर रहे हैं, इत्यादि) । जिसके फलस्वरूप उसी वेदवती के जीव को सीता (राम की पत्नी) की पर्याय में इतने बड़े कलंक का भाजन बनना पड़ा कि युगों बाद आज भी जगत् जानता है । (पद्मपुराण १०६/२२४ से २३१ पृ. ३१५ भाग ३ ज्ञानपीठ)
(६) वर्षायोग में ऋद्धिरहित (सामान्य) साधु १२ योजन तक बाहर जा सकता है । वर्षास्वतुच्छकार्येण, हिमे ग्रीष्मे लघीयसि 1 योजनानि दशद्वे च, कार्येगछन्न दोषभाक !।५८।। प्रायश्चित समुच्चय । प्रतिसेवाधिकार पृष्ठ ४६ (आचार्य गुरुदास)
अर्थ- वर्षाऋतु में देव तथा आर्ष संघ संबंधी कोई बड़ा कार्य तथा शीतकाल और ग्रीष्मकाल में छोटा कार्य उपस्थित हुआ हो तो उस कार्य के निमित्त १२ योजन तक कोई साधु चला जाए तो वह दोषी नहीं है। (इससे अधिक गमन करनेवाला प्रायश्चित्त को प्राप्त होता है ।)