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मोक्षमार्ग प्रकाशक १७०
याका अर्थ- स्वयमेव यहु मैं सम्यग्दृष्टी हूँ, मेरे कदाचित् बंध नाहीं, ऐसे ऊँचा फुलाया है मुख जिनने ऐसे रागी वैराग्य शक्ति रहित भी आचरण करें हैं तो करो, बहुरि पंचसमिति की सावधानीको अवलम्बै है तो अक्लम्बो, जातैं वे ज्ञान शक्ति बिना अजहूं पापी ही हैं। ए दोऊ आत्मा अनानाका ज्ञानरहितपना सम्यक्त्वरहित ही हैं।
बहुरि पूछिए है- परको पर जान्या, तो परद्रव्यचिषै रागादि करने का कहा प्रयोजन रहा? तहाँ वह कहै है - मोहके उदयतें रागादि हो हैं । पूर्वे भरतादिक ज्ञानी भए, तिनकै भी विषय - कषाय रूप कार्य भया सुनिये है।
ताका उत्तर- ज्ञानीकै भी मोहके उदयतै रागादिक हो हैं- यहु सत्य परन्तु बुद्धिपूर्वक रागादिक होते नाहीं । सो विशेष वर्णन आगे करेंगे। बहुरि जाकै रागादिक होनेका किछू विषाद नाहीं, तिनके नाशका उपाय नाहीं, ताकै रागादिक बुरे हैं ऐसा श्रद्धान भी नाहीं सम्भव है। ऐसे श्रद्धान बिना सम्यग्दृष्टी कैसे होय ? जीवाजीयादि तत्त्वनिके श्रद्धान करनेका प्रयोजन तो इतना ही श्रद्धान है। बहुरि भरतादिक सम्यग्दृष्टीनिकै विषय कषायकी प्रवृत्ति जैसे हो है, सो भी विशेष आगे कहेंगे। तू उनका उदाहरणकरि स्वच्छन्द होगा तो तेरे तीव्र आस्त्रव बंध होगा। सोई कला है
मखाज्ञावनयैषिरि यदि से स्वच्छन्दमन्दोधनाः ।
याका अर्थ - यहु ज्ञाननयके अवलोकनहारे भी जे स्वच्छन्द मंद उद्यमी हो हैं, ते संसारविषे डूबैं और भी तहाँ “ ज्ञानिनः कर्म्म न जातु कर्तुमुचितं” - इत्यादि कलशाविषे या " तथापि न निरर्गलं चरितुमिष्यते ज्ञानिनः " - इत्यादि कलशा विषै स्वच्छन्द होना निषेध्या है। बिना चाहि जो कार्य होय सो कर्मबन्धका कारण नाहीं । अभिप्रायतें कर्त्ता होय करै अर ज्ञाता रहे, यहु तो बनै नाहीं; इत्यादि निरूपण किया है। तातें रागादिक बुरे अहितकारी जानि तिनका नाशके अर्थ उद्यम राखना। तहाँ अनुक्रमविषै पहले तीव्ररागादिक छोड़ने के अर्थि अशुभ कार्य छोरि शुभ विषै लागना, पीछे मंदरागादि भी छोड़ने के अर्थि शुभको भी छोरि शुद्धोपयोगरूप होना ।
बहुरि केई जीव अशुभविषै क्लेश मानि व्यापारादि कार्य वा स्त्रीसेवनादि कार्यनिको भी घटावे हैं। बहुरि शुभको हेय जानि शास्त्राभ्यासादि कार्यनिविषै नाहीं प्रवर्ते हैं। वीतराग भाव रूप शुद्धोपयोगको प्राप्त भए नाहीं, ते जीव अर्थ काम धर्म्म मोक्षरूप पुरुषार्थतें रहित होते संते आलसी निरुद्यमी हो हैं। तिनकी निन्दा पंचास्तिकायकी व्याख्या विषै कीनी है । तिनको दृष्टांत दिया है - जैसे बहुत खीर खांड खाय पुरुष आलसी हो है वा जैसे वृक्ष निरुद्यमी हैं, तैसे ते जीव आलसी निरुद्यमी भए हैं।
भग्नाः कर्मनयावलम्बनपरा ज्ञानं न जानन्ति ये, मग्नाः ज्ञाननयैषिणोपि यदि ते स्वच्छन्दमन्दोद्यमाः । विश्वस्योपरि ते तरन्ति सततं ज्ञानं भवन्तः स्वयं, ये कुर्वन्ति न कर्म जातु न वशं यान्ति प्रमादस्य च ॥
- समयसार कलश १११