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छठा अधिकार--१५१
ताका उत्सर- गुरु नाम बड़े का है। सो जिस प्रकार की महंतता जाकै संभवै, तिस प्रकार ताको गुरुसंशा संभव। जैसे कुल अपेक्षा माता-पिताको गुरु संज्ञा है, तैसे ही विद्या पढ़ावनेवाले को विद्या अपेक्षा गुरु संज्ञा है। यहाँ तो धर्मका अधिकार है। तातें जाकै धर्म अपेक्षा महंतता संभवै, सो गुरु जानना । सो पर्म नाम चारित्रका है। 'चारित खलु धम्मो' ' ऐसा शास्त्रविषै कह्या है। ता” चारित्रका धारकहीको गुरु संज्ञा है। बहुरि जैसे भूतादिका भी नाम देव है, तथापि यहाँ देवका श्रद्धानविषै अरहंतदेव ही का ग्रहण है तैसे औरनिका भी नाम गुरु है, तथापि इहाँ श्रद्धानविषै निग्रंथही का ग्रहण है। सो जिनधर्म विषै अरहंत देव निग्रंथ गुरु ऐसा प्रसिद्ध वचन है।
यहाँ प्रश्न- जो निग्रंथ बिना और गुरु न मानिए सो कारण कहा?
ताका उत्तर- निग्रंथबिना अन्य जीव सर्व प्रकारकरि महंतता नाहीं धरै हैं। जैसे लोभी शास्त्रव्याख्यान करे, तहाँ वह वाको शास्त्र सूनावनेत महंत मया । वह वाको धनवन्त्रादि देनेत महंत भया । यद्यपि बाह्य शास्त्र सुनावनेवाला महंत रहै तथापि अन्तरंग लोभी होय सो सर्वथा महंतता न भई। - यहाँ कोऊ कहै, निग्रंथ भी तो आहार ले हैं।
ताका उत्तर- लोभी होय दातार की सुश्रूषाकरि दीनतात आहार न ले हैं। तातै महंतता घटै नाहीं। जो लोभी होय सो ही हीनता पाये है। ऐसे ही अन्य जीव जानने। तातै निग्रंथ ही सर्वप्रकार महंततायुक्त है। बहुरि निग्रंथ बिना अन्य जीव सर्वप्रकार गुणवान नाहीं। तातै गुणनिकी अपेक्षा महंतता अर दोषनिकी अपेक्षा हीनता भासै, तब निःशंक स्तुति कीनी जाय नाहीं । बहुरि निग्रंथ बिना अन्य जीव जो धर्म साधन करे, तैसा वा तिसतै अधिक गृहस्थ भी धर्म साधन करि सके। तहाँ गुरु संज्ञा किसको होय? तातै बाह्य अभ्यंतर परिग्रह रहित निर्ग्रन्थ मुनि है, सोई गुरु जानना।
यहाँ कोऊ कहै, ऐसे गुरु तो अबार यहाँ नाहीं, तातै जैसे अरहंत की स्थापना प्रतिमा है, तैसे गुरुनिकी स्थापना ए भेषधारी है
ताका उत्तर- जैसे राजाकी स्थापना चित्रामादिककार करै तो राजा का प्रतिपक्षी नाही अर कोई सामान्य मनुष्य आपको राजा मनावै तो राजाका प्रतिपक्षी हो है। तैसे अरहंतादिककी पाषाणादि विष स्थापना बनाय तो तिनका प्रतिपक्षी नाही अर कोई सामान्य मनुष्य आपको मुनि मनावै तो वह मुनिनका प्रतिपक्षी भया । ऐसे भी स्थापना होती होय तो अरहंत भी आपको मनावो। बहुरि जो उनकी स्थापना भए है तो बाह्य तो वैसे ही भए चाहिए। वे निग्रंथ, ए बहुत परिग्रहके धारी, यह कैसे बने?
बहुरि कोई कहै है- अब श्रावक भी तो जैसे सम्भवै तैसे नाहीं। तातै जैसे श्रावक तैसे मुनि।
ताका उत्तर- श्रावकसंज्ञा तो शास्त्रविषै सर्व गृहस्थ जैनीको है। श्रेणिक भी असंयमी था, ताको उत्तरपुराणविषे श्रावकोत्तम कह्या। बारहसभाविषे श्रावक कहे, तहाँ सर्व व्रतधारी न थे। जो सर्वव्रतधारी होते, तो असंयत मनुष्पनिकी जुदी संख्या कहते, सो कहीं नाहीं। तातै गृहस्थ जैनी श्रावक नाम पावै है अर 9. प्रवधनसार १/७।