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छठा अधिकार -१५७
कुधर्मसेवन से मिथ्यात्वभाव अब इस बिषै मिथ्यात्वभाव कैसे भया, सो कहिए है--
तत्त्वश्रद्धान करनेविषै प्रयोजनभूत एक यह है, रागादिक छोड़ना। इस भाव का नाम धर्म है। जो रागादिक भावनिको बधाय धर्म मानै, तहाँ तत्त्व श्रद्धान कैसे रह्या? बहुरि जिन आज्ञातै प्रतिकूली भया । बहुरि गगादिक भाव तो पाप है तिनको धर्म मान्या, सो यह झूट श्रद्धान भया। तातै कुधर्म सेवनविषै मिथ्यात्व भाव है। ऐसे कुदेव कुगुरु कुशास्त्र सेवन विषै मिथ्यात्व भावकी पुष्टता होती जानि याका निरूपण किया। सोई षट्पाहुड़ (मोक्खपा.) विष कह्या है
। विदेव धम्म कुच्उिपलिंगं च वंदए जो दु।
लज्जाभयगारवदो मिच्छादिट्ठी हवे सो दु।।२।। याका अर्थ- जो लज्जारौं वा भयत या वड़ाईते भी कुत्सित देवको वा कुत्सित धर्मको वा कुत्सित लिंगको वंदै है सो मिध्यादृष्टी हो है। ता” जो मिथ्यात्वका त्याग किया चाहै, सो पहले कुदेव कुगुरु कुधर्मका त्यागी होय। सभ्यश्च के पच्चीस मलनिके त्याग विप भी अमूढदृष्टि विषै वा षडायतनविषै इनहीका त्याग कराया है। तातै इनका अवश्य न्याग करना। बहुरि कुदेवादिकके सेवन” जो मिथ्यात्वभाव हो है, सो यह हिंसादिक पापनितें बड़ा पाप है। ण के फल्नै निगोद नरकादि पर्याय पाईए है। तहाँ अनंतकाल पर्यंत महासंकट पाईए है। सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति महादुर्लम होय जाय है। सो ही षट्पाहुड़ विषै (भावपाहुड़ में) कह्या है
कुच्छियधम्मम्मि-रओ, कुच्छिय पासंडि भत्तिसंजुत्तो।
कुच्छियत कुणंतो कुच्छिय गइभायणो होइ ।।१४०।। याका अर्थ- जो कुत्सितधर्मादिङ्ग रत है, कुत्सित पाखंडीनिकी भक्तिकरि संयुक्त है, कुत्सित तपको करता है, सो जीव कुत्सित जो खोटी गति ताको भोगनहारा हो है। सो हे भव्य हो, किंचिन्मात्रलोभते वा भयते कुदेवादिकका सेवनकरि जानें अनन्तकालपर्यंत महादुःख सहना होय ऐसा मिथ्यात्वभाव करना योग्य नाहीं जिनधर्म विर्ष यह तो आम्नाय है, पहलै बड़ा पाप छुड़ाय पीछे छोटा पाप छुड़ाया। सो इस मिथ्यात्वको सप्तव्यसनादिकते भी बड़ा पाप जानि पहले छुड़ाया है। ताते जे पापके फलते डरै हैं, अपने आत्माको दुःख समुद्र में न डुबाया चाहै हैं, ते जीव इस मिथ्याल्वको अवश्य छोड़ो। निन्दा प्रशंसादिकके विचारतें शिथिल होना योग्य नाहीं। जातें नीति विषै भी ऐसा कह्या है
निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु, लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्। अद्यैव वास्तु मरणं तु युगान्तरे वा, न्यायात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः ।।१।।
(नीतिशतक८४) जे निन्दै हैं ते निन्दो. अर स्तवै हैं तो स्तवो, बहुरि लक्ष्मी आयो वा जहाँ तहाँ जावो, बहुरि अब