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卐सातवाँ अधिकार जैन मतानुयायी मिथ्यादृष्टिका स्वरूप
* दोहा इस भव तरुका मूल इक, जानहु मिथ्या भाव।
ताकों करि निर्मूल अब, करिए मोक्ष उपाव ।।१।। अथ-जे जीव जैनी हैं, जिन आज्ञाको मानै हैं अर तिनके भी मिथ्यात्व रहै है ताका वर्णन कीजिए है जातें इस मिथ्यात्व वैरी का अंश भी बुरा है, तात सूक्ष्ममिथ्यात्व भी त्यागने योग्य है। तहां जिन आग: विषै निश्चय व्यवहाररूप वर्णन है। तिन विषे यथार्थका नाम निश्चय है, उपचार का नाम व्यवहार है। सो इनका स्वरूपको न जानते अन्यथा प्रवर्ते हैं, सोई कहिए है
केवल निश्चयनयावलम्बी जैनाभास का निरूपण केई जीव निश्चयको न जानते निश्चवाभासके श्रद्धानी होइ आपको मोक्षमार्गी माने हैं। अपने आत्माको सिद्ध समान अनुभव हैं। सो आप प्रत्यक्ष संसारी हैं। भ्रमकरि आपको सिद्ध मानै सोई मिथ्यादृष्टि है।' शास्त्रनिविषै जो सिद्ध समान आत्माको कह्या है सो द्रव्यदृष्टि करि कह्या है, पर्याय अपेक्षा समान नाहीं है। जैसे राजा अर रंक मनुष्यपनकी अपेक्षा समान है, राजापना रंकपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं । तैसे सिद्ध अर संसारी जीवत्वपनेकी अपेक्षा स्मान हैं, सिद्धपना संसारीपनाकी अपेक्षा तो समान नाहीं। यहु जैसे सिद्ध शुद्ध है, तैसे ही आपको शुद्ध मान । सो शुद्ध अशुद्ध अवस्था पर्याय है। इस पर्याय अपेक्षा समानता मानिए, सो यह मिथ्यादृष्टि है। बहुरि आपकै केवलज्ञानादिकका सद्भाव मानै सो आपकै तो क्षयोपशमरूप मतिश्रुतादि ज्ञानका सद्भाव है। क्षायिकभाव तो कर्मका क्षय भए होइ है। यह भ्रमतें कर्मका क्षय भए बिना ही क्षायिकभाव माने। सो यहु मिध्यादृष्टि है। शास्त्रविष सर्वजीवनिका
१. पद्मपुराण में पी लिखा है कि
सुखासनविहारः सन् सदाकशिपुसक्तथीः ।
सिद्धंपन्यो विमूढात्मा जनोऽयं स्वस्य वश्चकः । ११/१३१।। अर्थ - जो सुखपूर्वक उठता-बैठता तथा विहार करता है तथा सदा जो भोजन और वस्त्रों में बुद्धि लगाये रखता है, फिर भी अपने आपको सिद्ध समान मानता है. वह मूर्ख अपने आपको धोखा देता है।।१३१११