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सातवाँ अधिकार-१६३
करि ऐसी झूठी बातें बना है। या प्रकार जे रागादिक होते तिन करि रहित आत्मा को मानै हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने।
आत्मा को कर्म-नोकर्म से अबद्ध मानने का निषेध बहुरि कर्म नोकर्म का सम्बन्ध होते आत्मा को निर्वन्ध मानै, सो प्रत्यक्ष इनिका बंधन देखिए है। ज्ञानावरणादिकतै ज्ञानादिकका धात देखिए है। शरीरकरि ताकै अनुसारि अवस्था होती देखिए है। बंधन कैसे नाहीं। जो बन्धन न होय तो मोक्षमार्गी इनके नाश का उद्यम काहेको करै। ... यहाँ कोऊ कहै- शास्त्रनिविधै आत्मा को कर्म-नोकर्म से भिन्न अबद्धस्पृष्ट कैसे का है?
ताका उत्तर- सम्बन्ध अनेक प्रकार है। तहाँ तादात्म्य संबंध अपेक्षा आत्माको कर्म-नोकर्मत भिन्न कह्या है। जाते द्रव्य पलटकरि एक नाही होय जाय है। अर इस ही अपेक्षा अबद्ध स्पृष्ट कह्या है। बहुरि मिमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध अपेक्षा बन्धन है ही। उनके निमित्त आत्मा अनेक अवस्था धरै ही है। ताते सर्वथा निर्बन्ध आपको मानना मिथ्यादृष्टि है। यहाँ कोऊ कहै- हमको तो बंथ-मुक्ति का विकल्प करना नाहीं, जाते शास्त्रविर्ष ऐसा कह्या है
“जो बंधउ मुक्कर मुणइ, सो बंधइ णिभंतु।" याका अर्थ- जो जीव बंध्या अर मुक्त भया माने है, सो निःसन्देह बंधे है ताको कहिए है- जे जीव केवल पर्यायदृष्टि होय बन्ध मुक्त अवस्था ही को मानै हैं, द्रव्य स्वभाव का ग्रहण नाहीं करै हैं, तिनको ऐसा उपदेश दिया है, जो द्रव्य-स्वभाव को न जानता जीव बंध्या मुक्त भया माने, सो बंधै है। बहुरि जो सर्वथा ही बन्ध मुक्ति न होय, तो सो जीव बंधै है, ऐसा काहेको कहै। अर बन्ध के नाश का, मुक्त होने का उद्यम काहेको करिए है। काहेको आत्मानुभव करिये है। तात द्रव्यदृष्टि करि एक दशा है, पर्यायदृष्टिकरि अनेक अवस्था हो है, ऐसा मानना योग्य है।
अपेक्षा न समझने से मिथ्याप्रवृत्ति ऐसे ही अनेकप्रकारकरि केवल निश्चय नय का अभिप्रायतें विरुद्ध श्रद्धानादिक करै है। जिनवाणीविषै तो नाना नय अपेक्षा कहीं कैसा कहीं कैसा निरूपण किया है। यह अपने अभिप्रायत निश्चयनय की मुख्यताकरि जो कथन किया होय, ताहीको अहिकरि मिथ्यादृष्टि को धारै है। बहुरि जिनवाणी विषै तो सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र की एकता भए मोक्षमार्ग कह्या है। सो याकै सम्यग्दर्शन ज्ञान विषै सप्ततत्त्वनिका प्रद्धान वा जानना भया चाहिए, सो तिनका विचार नाहीं। अर चारित्रविर्ष रागादिक दूरि किया चाहिए, ताका उद्यम नाहीं। एक अपने आत्मा को शुद्ध अनुभवना इसहीको मोक्षमार्ग जानि सन्तुष्ट भया है। ताका अभ्यास करने को अंतरंगविषै ऐसा चितवन किया करै है- मैं सिख समान शुद्ध हूँ, केवलज्ञानादि सहित हूँ, द्रव्यकर्म नोकर्म रहित हूँ, परमानन्दमय हूँ, जन्म-मरणादि दुःख मेरे नाही, इत्यादि चितवन कर है। सो यहाँ पूछिए है- यहु चितवन जो द्रव्यदृष्टिकरि करो हो, तो द्रव्य तो शुख अशुद्ध सर्वपर्यायनिका समुदाय