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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१५४
यहाँ कोऊ कहै, हमारे अंतरंग विषे श्रद्धान तो सत्य है परन्तु बाह्य लजादिकरि शिष्टाचार कर हैं, सो फल तो अंतरंग का होगा?
ताका उत्तर-षट्पाहुडविष लज्जादिकरि बन्दनादिकका निषेध दिखाया था, सो पूर्व ही कह्या था, बहुरि कोऊ जोरावरी मस्तक नमाय हाथ जुड़ावै, तब तो यह सम्भवे जो हमारा अन्तरंग न था। अर आप ही मानादिकात नमस्कासीद करे, तह अनारंग कैसे न कहिए। जैसे कोई अंतरंग विषे तो मांसको बुरा जानै अर राजादिकका मला मनावनेको मांस भक्षण करै, तो वाको व्रती कैसे मानिए? तैसे अंतरंगविषै तो कुगुरुसेवनको बुरा जानै अर तिनका वा लोकनिका भला मनावनेको सेवन करे, तो श्रद्धानी कैसे कहिए। जात बाह्मत्याग किए ही अंतरंग त्याग सम्भवै है। तातें जे श्रद्धानी जीव हैं, तिनको काहू प्रकारकरि भी कुगुरुनिकी सुश्रूषाआदि करनी योग्य नाहीं । या प्रकार कुगुरुसेवनका निषेध किया।
यहाँ कोई कहै- काहू तत्त्वश्रद्धानीको कुगुरु-सेवन" मिथ्यात्व कैसे भया?
ताका उत्तर- जैसे शीलवती स्त्री परपुरुषसहित भारवत् रमण क्रिया सर्वथा करै नाही, तैसे तत्त्वश्रद्धानी पुरुष कुगुरु सहित सुगुरुवत् नमस्कारादिक्रिया सर्वथा करै नाहीं। काहेते, यह तो जीवादि तत्त्वनिका श्रद्धानी भया है। तहाँ रागादिकको निषिद्ध श्रद्धहै है, वीतराग भाव को श्रेष्ठ मान है। तातै जिनकै वीतरागता पाईए, ऐसेही गुरुको उत्तम जानि नमस्कारादि करै है। जिनकै रागादिक पाईए, तिनको निषिद्ध जानि नमस्कारादि कदाचित् करै नाहीं।
कोऊ कहे-जैसे राजादिकको करे, तैसे इनको भी करै है।
ताका उत्तर- राजादिक धर्मपद्धति विष नाहीं। गुरुका सेवन धर्मपद्धतिविष है। सो राजादिकका सेवन तो लोभादिकर्ते हो है। तहाँ चारित्रमोह ही का उदय सम्भव है। अर गुरुनिकी जायगा कुगुरुनिको सेए, वहाँ तत्त्वश्रद्धान के कारण गुरु थे, तिनः प्रतिकूली भया। सो लब्जादिकतै जानै कारणविषै विपरीतता निपजाई, ताकै कार्यभूत तत्त्व श्रद्धानविषै दृढ़ता कैसे सम्भवै? तात तहाँ दर्शनमोहका उदय सम्भवै है। ऐसे कुगुरुनिका निरूपण किया।
कुधर्म का निरूपण और उसके श्रद्धानादिकका निषेध अब कुधर्मका निरूपण कीजिए है
जहाँ हिंसादिक पाप उपजै वा विषयकषायनिकी वृद्धि होय, तहाँ धर्म मानिए, सो कुधर्म जानना। तहाँ यज्ञादिक क्रियानिविषै महा हिंसादिक उपजावै, बड़े जीवनिका धात करै अर तहाँ इन्द्रियनिके विषय पोषै। तिन जीवनिविषै दुष्ट बुद्धिकरि रौद्रध्यानी होय तीव्रलोभते औरनिका बुरा करि अपना कोई प्रयोजन साध्या चाहै, ऐसा कार्य करि तहाँ धर्म मानै सो कुधर्म है। बहुरि तीर्थनिविर्ष वा अन्यत्र स्नानादि कार्य करे, तहाँ बड़े छोटे घने जीवनिकी हिंसा होय, शरीर को चैन उपजे, तातै विषयपोषण होय, तात कामादिक बधै, कुतूहलादिक करि तहाँ कषाय भाव बधावै, बहुरि तहां धर्म मानै सो यह कुधर्म है। बहुरि संक्रांति, ग्रहण,