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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१४८
या अर्थ- जो यमधर्ष नन्दनी है, दोपनि, घर है, इक्षुफूल समान निष्फल है, गुण का आचरणकरि रहित है, सो नग्नरूपकरि नट श्रमण है, भांडवत् भेषधारी है। सो नग्न भए भांड का दृष्टांत सम्भव है। परिग्रह राखै तो यह भी दृष्टांत बनै नाहीं।
जे पायमोहियमई लिंग घेत्तूण जिणवरिंदाणं ।
पावं कुर्णति पावा ते चत्ता मोक्खमम्गम्मि।।७८। (मो.पा.) याका अर्थ- पापकरि मोहित भई है बुद्धि जिनकी ऐसे जे जीव जिनवरनिका लिंग धारि पाप करै है, ते पापमूर्ति मोक्षमार्गविषै भ्रष्ट जानने। बहुरि ऐसा कह्या है।
जे पंचचेलसत्ता गंथग्गाही य जायणासीला।
आयाकम्मम्मिरया ते चत्ता मोक्खमग्गम्मि।।७६ ।। (मो.पा.) याका अर्थ- जे पंचप्रकार वस्त्रविर्ष आसक्त हैं, परिग्रह के ग्रहणहारे हैं, याचनासहित हैं, अधःकर्म दोषनिविष रत हैं, ते मोक्षमार्गविषै प्रष्ट जानने। और भी गाथासूत्र तहाँ तिस श्रद्धानके दृढ़ करने को कारण कहे हैं ते तहांतें जानने । बहुरि कुन्दकुन्दाचार्यकृत लिंगपाहुइ है, तिसविर्ष मुनिलिंगधारि जो-हिंसा, आरम्भ यंत्रमंत्रादि करै हैं, ताका निषेध बहुत किया है। बहुरि गुणभद्राचार्यकृत आत्मानुशासन विषै ऐसा कह्या है
इतस्ततश्च त्रस्यन्तो विमाव- यथा मृगाः।
वनायसन्त्युग्राम कली कष्टं तपस्विनः ।।१६७।। याका अर्थ- कलिकालविषै तपस्वी मृगवत् इधर-उधरतै भयवान होय बनते नगर के समीप बसै हैं, यहु महाखेदकारी कार्य भया है। यहाँ नगर-समीप ही रहना निषेध्या, तो नगरविषै रहना तो निषिद्ध भया ही। .
विशेष- चतुर्यकाल में भी मुनिराज नगरों के समीप चातुर्मास स्थापित करते थे। सप्तर्षि चारण ऋद्धिधारी ने मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे चातुर्मास स्थापित किया था। (पद्म पुराण ६२/८)। उस विशाल वटवृक्ष के नीचे उनका आश्रम था (वही, ६२/२६)। उस आश्रम में श्रावकों की दृष्टि से निर्मापित प्याऊ, धार्मिक नाटकगृह, धर्मसंगीतशाला भी थी। (वही ६२/४३)। इस प्रकार चतुर्थकाल में भी मथुरापुरी में सप्तर्षियों ने निवास किया था। (६२/६१) चतुर्थकाल में भी मुनिराज खाली घरों तथा मन्दिरों में अवश्य चातुर्मास करते थे। (पद्मपुराण पर्व ६२ श्लोक ११६ तथा २२)
मूलाधार ७८५ में कहा है कि "गामेयरादि णयरे पंचाहवासिणो धीरा। फासुविहारी विवित्तएगंत वासी या अर्थ- जो ग्राम में एक रात और नगर में पाँच दिन तक रहते हैं वे साधु धैर्यवान् प्रासुकविहारी हैं, स्त्री आदि से रहित एकान्त जगह में रहते हैं। बोधपाहूड टीका ४२ में