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छटा अधिकार-१४७
ताका उत्तर- जैसे नीचा पुरुष जाका निषेध करै, ताका उत्तमपुरुषकै तो सहज ही निषेध भया। तैसे जिनके वस्त्रादि उपकरण कहै, वे हू जाका निषेध करै, तो दिगम्बरथर्म विषै तो ऐसी विपरीतिका सहज ही निषेध भया। बहुरि दिगम्बर ग्रन्थनिविषै भी इस श्रद्धान के पोषक वचन है। तहाँ श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत षट्पाहुविषै (दर्शनपाहुड में) ऐसा कह्या है
दसणमूलो धम्मो उदइटो जिणवरेहि सिस्साणं ।
तं सोऊण सकण्णे दंसणहीणो ण यदिव्यो।।२।। याका अर्थ-जिनवरकरि सम्यग्दर्शन है मूल जाका ऐसा धर्म उपदेश्या है। ताको सुनकरि हे कर्णसहित हो, यहु मानो-सम्यक्त्वरहित जीव वंदनेयोग्य नाहीं। जे आप कुगुरु ते कुगुरुका श्रद्धानसहित सम्यक्ती कैसे होय? बिना सम्यक्त अन्य धर्म भी न होय। धर्म बिना वंदने योग्य कैसे होय । बहुरि कहै हैं
जे दंसणेसु भट्टा णाणे भष्टा चरित्तमट्टा य।
एदे भट्टविभट्टा सेसपि जणं विणासंति।।।। (द. पा.) जे दर्शनविष भ्रष्ट हैं, ज्ञानविषै प्रष्ट हैं, चारित्रभ्रष्ट हैं, ते जीव भ्रष्टतै भ्रष्ट हैं; और भी जीव जो उनका उपदेश माने हैं, तिस जीव का नाश करे हैं, बुरा करै हैं। बहुरि कहै हैं
जे सणेसु भट्टा पाए पाडति दसणधराण।
ते इंति लुल्लमूया बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।।१२।। (द.पा.) जे आप तो सम्यक्तः प्रष्ट हैं, अर सम्यक्त्वधारकनिको अपने पगो पड़ाया चाहै हैं, ते लूले गूंगे हो हैं; भाव यहु-स्थावर हो हैं। बहुरि तिनकै बोधि की प्राप्ति महादुर्लभ हो है।
जे वि पहति च तेसिं जाणता लज्जागारवभएण।
सेसि पि पत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ।।१३।। (द.पा.) .. जो जानता हुवा भी लज्जागारवमयकरि तिनके पगां पड़े हैं, तिनकै भी बोधि जो सम्यक्त सो नाही है। कैसे हैं ए जीव, पापकी अनुमोदना करते हैं। पापीनिका सम्मानादि किए तिस पापकी अनुमोदना का फल लागे है। बहुरि (सूत्र पाहुड़ में) कहे हैं -
जस्स परिग्गहगहण अप्पं बहुमं च हवइ लिंगस्स।
सो गरहिउ जिणवयणे परिगहरहिओ णिरायारो।।१६।। (सूत्र पा.) जिस लिंग कै थोरा वा बहुत परिग्रह का अंगीकार होय सो जिनवचनविषै निंदा योग्य है। परिग्रहरहित ही अनगार हो है। बहुरि (भावपाहुड़ में) कहै हैं
धम्मम्मि णिप्पवासो दोसावासो य उच्छुफुल्लसमो। णिफलणिग्गुणयारो णडसवणो जग्गसवेण । ७१॥ (माव पा.)