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छठा अधिकार-१४३
ब्राह्मण होय चांडाल कार्य करे, ताको चांडाल ब्राह्मण कहिए" ' ऐसा कया है। सो कुलहीत उच्चपना होय तो ऐसी हीनसंज्ञा काहेको दई है।
बहुरि वैष्णवशास्त्रनियिषै ऐसा भी कहै- वेदव्यासादिक मछली आदितै उपजे । तहाँ कुलका अनुक्रम कैसे रह्या? बहुरि मूलउत्पत्ति सो सजाय कह हैं : सातै सर्दया एका मुल , लिल कुल कैसे रह्या? बहुरि उच्चकुल की स्त्रीकै नीचकुल के पुरुषते वा नौचकुलकी स्त्रीकै उच्चकुलके पुरुषः संगम होते संतति होती देखिए है। तहाँ कुलका प्रमाण कैसे रह्या? जो कदाचित् कहोगे, ऐसे है, तो उच्च नीच कुलका विभाग काहेको मानो हो। सो लौकिक कार्यनिविषे असत्य भी प्रवृत्तिसंभदै, धर्मकार्याविषै तो असत्यता संभव नाहीं। ताते धर्मपद्धतिविष कुलअपेक्षा महंतपना नाहीं संभव है। धर्मसाधनहींत महंतपना होय। ब्राह्मणादि कुलनिविषै महंतता है, सो धर्मप्रवृत्तिते है। सो धर्मकी प्रवृत्ति को छोड़ि हिंसादिक पापविष प्रवते महतपना कैसे रहै।
बहुरि केई कहै - जो हमारे बड़े, भक्त भए हैं, सिद्ध भए हैं, धर्मात्मा भए हैं। हम उनकी संततिविष हैं, तातै हम गुरु हैं। सो उन बड़ेनिके बड़े तो ऐसे उत्तम थे नाहीं। तिनकी संततिविष उत्तमकार्य किये उत्तम मानो हो तो उत्तमपुरुषकी संततिविषै जो उत्तम कार्य न करे, ताको उत्तम काहेको मानो हो। बहुरि शास्त्रनिविषै या लोकविषै यहु प्रसिद्ध है कि पिता शुभ कार्यकरि उच्चपदको पावै, पुत्र अशुभकार्यकरि नीच पदको पावै वा पिता अशुभ कार्यकरि नीच पदको पावै, पुत्र शुभकार्यकरि उच्चपदको पावै। तात बड़ेनिकी अपेक्षा महंत मानना योग्य नाहीं। ऐसे कुलकरि गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना! बहुरि केई पट्टकरि गुरुपनो माने हैं। कोई पूर्व महंत पुरुष भया होय, ताके पाटि जे शिष्य प्रतिशिष्य होते आए, तहाँ तिन विष तिस महंत पुरुष कैसे गुण न होते भी गुरुपनो मानिए, सो जो ऐसे ही होय तो उस पाटविष कोई • परस्त्रीगमनादि महापापकार्य करेगा, सो भी धर्मात्मा होगा, सुगति को प्राप्त होगा, सो संभव नाहीं । अर वह पापी है, तो पाटका अधिकार कहाँ रमा? जो गुरुपद योग्य कार्य करे सो ही गुरु है।
बहुरि केई पहले तो स्त्री आदि के त्यागी थे, पीछे भ्रष्ट होय विवाहादिक कार्यकरि गृहस्थ भए, तिनकी संतति आपको गुरु मान है। सो भ्रष्ट भए पीछे गुरुएना कैसे रहा? और गृहस्थवत् ए भी भए। इतना विशेष भया, जो ए अष्ट होय गृहस्थ भए। इनको मूल गृहस्थधर्मी गुरु कैसे मान? बहुरि केई अन्य तो सर्व पाप कार्य करै, एक स्त्री परणे नाही, इसही अंगकार गुरुपनो माने है। सो एक अब्रह्म ही तो पाप नाहीं, हिंसा परिग्रहादिक भी पाप हैं, तिनिको करते थर्मात्मा गुरु कैसे मानिए। बहुरि वह धर्मबुद्धित विवाहादिका त्यागी नाहीं भया है। कोई आजीविका वा लज्जा आदि प्रयोजन को लिए विवाह न करे है। जो धर्मबुद्धि होती, तो हिंसादिक को काहे को बधावता। बहुरि जाकै धर्मबुद्धि नाही, ताकै शीलकी भी दृढ़ता रहे नाहीं । अर विवाह कर नाहीं, तब परस्त्रीगमनादि महापापको उपजावे। ऐसी क्रिया होते गुरुपना मानना महा प्रष्टबुद्धि है।
१. षडंग वेद, शास्त्र, पुराण और कुल में जन्म - ये सब बातें आचारहीन दिन के व्यर्थ है। म.मा. २२/१२। २. महाभारत आदि. प.अ. ६३।