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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १५०
ताका उत्तर- आपकै पाप उदय होतें सुख न देव सकै, पुण्य उदय होतैं दुःख न देय सकै; बहुरि तिनके पूजनेतें कोई पुण्यबंध होय नाहीं, रागादिककी वृद्धि होतें पाप ही हो है । तातें तिनका मानना पूजना कार्यकारी नाहीं - बुरा करने वाला है। बहुरि व्यंतरादिक मनावै हैं, पुजावे हैं, सो कुतूहल करे हैं, किछु विशेष प्रयोजन नाहीं राखे हैं। जो उनको माने पूजे, तिस सेती कौतूहल किया करें। जो न मानै पूजे, तासो किछू न कहै। जो उनके प्रयोजन ही होय, तो न मानने पूजने वाले को घना दुःखी करै सो तो जिनके न मानने पूजने का अवगाढ़ है, तासो किछू भी कहते दीसते नाहीं । बहुरि प्रयोजन तो क्षुधादिककी पीड़ा होय तो होय, सो उनकै व्यक्त होय नाहीं। जो होय, तो उनके अर्थ नैवेद्यादिक दीजिए ताको भी ग्रहण क्यों न करै वा और निके जिमावने आदि करनेही को काहेको कहै । ताते उनके कुतूहल मात्र क्रिया है। सो आपको उनके कुतूहल का ठिकाना भए दुःख होय, हीनता होय तातैं उनको मानना पूजना योग्य नाहीं ।
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बहुरि कोऊ पूछे कि व्यंतर ऐसे कहै है गया आदि विषे पिंडप्रदान करो तो हमारी गति होय, ' हम बहुरि न आवै, सो कहा है।
सीका उत्तरपूर्व का सस्कार तो रही है। व्यंतरनिकै पूर्व-भव का स्मरणादिकर्ते विशेष संस्कार है । तातैं पूर्वभवके विषै ऐसी ही वासना थी, गयादिकविषै पिंडप्रदानादि किए गति हो हैं तातैं ऐसे कार्य करने को कहे हैं। जो मुसलमान आदि मरि व्यंतर हो है, ते तो ऐसे कहै नाहीं, वे तो अपने संस्कार रूप ही वचन कहे । तातें सर्व व्यंतरनिकी गति तैसे ही होती होइ तो सर्व ही समान प्रार्थना करे सो है नाहीं, ऐसे जानना । ऐसे व्यंतरादिकनिका स्वरूप जानना ।
सूर्य चन्द्रमादि ग्रह पूजा प्रतिषेध
बहुरि सूर्य चन्द्रमा ग्रहादिक ज्योतिषी हैं, तिनको पूजे हैं सो भी भ्रम है। सूर्यादिकको परमेश्वरका अंश मानि पूजे हैं। सो वाकै तो एक प्रकाशका ही आधिक्य भासे है। सो प्रकाशवान् अन्य रत्नादिकभी हो हैं । अन्य कोई ऐसा लक्षण नाहीं, जातै वाको परमेश्वरका अंश मानिए। बहुरि चन्द्रमादिकको धनादिककी प्राप्ति के अर्थ पूजे हैं। सो उसके पूजनेतें ही धन होता होय, तो सर्व दरिद्री इस कार्यको करें। तातें ए मिथ्याभाव है। बहुरि ज्योतिषके विचार खोटा ग्रहादिक आए तिनिका पूजनादिक करे हैं, वाके अर्थ दानादिक दे हैं। सो जैसे हिरणादिक स्वयमेव गमनादि करे है, पुरुषकै दाहिणै- बावै आए, सुख-दुःख होनेका आगामी ज्ञानको कारण हो हैं, किछू सुख-दुःख देनको समर्थ नाहीं । तैसे ग्रहादिक स्वयमेव गमनादि करे हैं। प्राणीकै यथासम्मय योगको प्राप्त होतें सुख-दुःख होने का आगामी ज्ञानको कारण हो हैं, किछू सुख-दुःख देनेको समर्थ नाहीं । कोई तो उनका पूजनादि करे, ताकै भी इष्ट न होय, कोई न करें ताकै भी इष्ट होय, तार्ते तिनिका पूजनादि करना मिथ्याभाव है !
यहाँ कोऊ कई देना तो पुण्य है, सो भला ही है ।
१. वायुपुराण अ. १०५ श्लोक १८ ।
३. वि. पु. अ. ८ श्लोक ५६ ।
२.
अ. पु. अ. ७३।
३. अग्निपुराण अ. १६४ पृ. २१६ ।