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पाँचवाँ अधिकार-१०७
चेष्टा तो होती नाही, चेष्टा तो धनी ही प्रकारकी हो हैं। बहुरि जुदी ही इनको तत्त्वसंज्ञा कही;सो के तो जुदा पदार्थ होय तो ताको जुदा तत्त्य कहना था, के काम क्रोधादि भेटनेको विशेष प्रयोजनभूत होय तो तत्त्व कहना था, सो दोऊ ही नाहीं। अर ऐसे ही हि दे पाशविका अनेक आशा हो हैं सो कह्या करो, किछू साध्य नाहीं। बहुरि सामान्य दोय प्रकार है-पर अपर। तहां पर तो सत्तास्लप है, अपर द्रव्यत्वादिरूप है। बहुरि नित्य द्रव्यविषै प्रवृत्ति जिनकी होय ते विशेष हैं। बहुरि अयुतसिद्ध सम्बन्ध का नाम समवाय है। सो सामान्यादिक तो बहुतनिको एकप्रकारकरि वा एक वस्तुविषे भेदकल्पना करि वा भेद कल्पना अपेक्षा सम्बन्ध माननेकरि अपने विचारहीविष हो है, कोई ए जुदे पदार्थ तो नाहीं। बहुरि इनिके जाने कामक्रोधादि मेटनेरूप विशेष प्रयोजनकी भी सिद्धि नाहीं, ता इनको तत्त्य काहेको कहै। अर ऐसे ही तत्त्व कहने थे तो प्रमेयस्वादि वस्तुके अनंतधर्म हैं वा सम्बन्ध आधारादिक कारकनिके अनेक प्रकार यस्तुविषै सम्भवै हैं। के तो सर्व कहने थे, के प्रयोजन जानि कहने थे। तातै ए सामान्यादिक तत्त्व भी वृथा ही कहे। ऐसे वैशेषिकनिकरि कहे कल्पित तत्त्व जानने । बहुरि वैशेषिक दोय ही प्रमाण माने हैं-प्रत्यक्ष, अनुमान। सो इनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनन्यायग्रन्थनितें जानना।
बहुरि नैयायिक तो कहै है-विषय, इन्द्रिय, बुद्धि, शरीर, सुख, दुःख इनिका अभावते आत्माकी स्थिति सो मुक्ति है। अर वैशेषिक कहै हैं-चौईस गुणनिविषै बुद्धि आदि नवगुण तिनिका अभाव सो मुक्ति है। सो इहां बुद्धिका अभाव कह्या सो बुद्धि नाम ज्ञानका है तो ज्ञानका अधिकरणपना आत्माका लक्षण करा था, अब ज्ञानका अभाव भए लक्षणका अभाव होते लक्ष्यका भी अभाव होय, तब आत्माकी स्थिति कैसे रही। अर जो बुद्धि नाम मन का है तो भावमन तो जानरूप है ही अर द्रव्य मन शरीररूप है सो मुक्त भए द्रव्यमन का सम्बन्ध छूटै ही है सो द्रव्य-मन जड़ ताका नाम बुद्धि कैसे होय? बहुरि मनवत् ही इन्द्रिय जानने । बहुरि विषयका अभाव होय सो स्पर्शादि विषयनिका जानना मिटै है तो ज्ञान काहेका नाम ठहरेगा। अर तिनि विषयनिका ही अभाव होयगा तो तोकका अभाव होयगा। बहुरि सुखका अभाव कह्या सो सुख ही के अर्थ उपाय कीजिए है, ताका जहाँ अभाव होय सो उपादेय कैसे होय। बहुरि जो आकुलतामय इन्द्रियजनित सुखका तहाँ अभाव भया कहै तो यह सत्य है। अर निराकुलता लक्षण अतीन्द्रियसुख तो तहाँ सम्पूर्ण सम्भवै है तातै सुखका अभाव नाहीं। बहुरि शरीर दुःख द्वेषादिकका तहाँ अभाव कहै सो सत्य ही
. बहुरि शिवमतविषै कर्ता निर्गुण ईश्वर शिव है ताको देय माने है। सो याके स्वरूपका अन्यथापना पूर्वोक्त प्रकार जानना। बहुरि यहाँ भस्मी, कोपीन, जटा, जनेऊ, इत्यादि चिहसहित भेष हो है सो आधारादि भेदतै च्यारि प्रकार है- शैव, पाशुपत, महाव्रती, कालमुख। सो ए रागादि सहित है तात सुलिंग नाहीं। ऐसे शिवमत का निरूपण किया। .
१. देवागम, युक्त्पनुशासन, अष्टसहस्री, न्यायविनिश्चय, सिसिविनिश्चय, प्रमाणसंग्रह, तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक, राजवार्तिक,
प्रमेयकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचन्द्रादि दार्शनिक ग्रन्थों से जानना चाहिए। .