________________
पाँचवा अधिकार-१२E
बा. अरकंधादिरूप अजीवका, पाप-पुण्यके स्थानिका, अविरति आदि आस्रवनिका, व्रतादिरूप संवरका, तपश्चरणादिरूप निर्जराका, सिद्ध होने के लिगादिके भेदनिकरि मोक्षका स्वरूप जैसे उनके शास्त्र विषे कह्या है. तैसे सीखि लीजिए अर केवलीका वचन प्रमाण है. ऐसे तत्त्वार्थ श्रद्धानकरि सम्यक्त्व भया माने है। सो हम पूछ हैं, अवेयक जानेवाला द्रव्यलिंगी मुनिकै ऐसा श्रद्धान हो है कि नाहीं । जो हो है, तो वाको मिथ्यादृष्टि काहेको कहिए। अर न हो है, तो वाने तो जैनलिंग धर्मबुद्धि करि धस्या है, ताकै देवादिकी प्रतीति कैसे नाहीं भई? अर वाकै बहुत शास्त्राभ्यास है, सो वानै जीवादिके भेद कैसे न जाने। भर अन्यमतका लवलेश भी अभिप्रायमें नाहीं, ताकै अरहंत वचन की कैसे प्रतीति नाहीं भई। ताते वाकै ऐसा श्रद्धान तो होय परन्तु सम्यक्त्व न भया। बहुरि नारकी भोगभूमियाँ तिर्यच आदिकै ऐसा अद्धान होनेका निमित्त नाहीं अर तिनिकै बहुत कालपर्यंत सम्यक्त्व रहै है। तातै वाकै ऐसा श्रद्धान नाहीं हो है, तो भी सम्यक्त्व भया। तातें सम्यक्श्रद्धानका स्वरूप यहु नाहीं । साँचा स्वरूप है, सो आगे वर्णन करेंगे, सो जानना।
बहुरि जो उनके शास्त्रनिका अभ्यास करना ताको सम्यग्ज्ञान कहै है। सो द्रव्यलिंगी मुनिकै 'शास्त्राभ्यास होते भी मिथ्याज्ञान कह्या, असंयत सम्यग्दृष्टिकै विषयादिरूप जानना ताको सम्यग्ज्ञान कह्या। तात यहु स्वरूप नाही, सांचा स्वरूप आगे कहेंगे सो जानना । बहुरि उनकरि निरूपित अणुव्रत महाव्रतादिरूप श्रावक यतीका धर्म थारने करि सभ्धचारित्र भया माने । सो प्रथम तो व्रतादिका स्वरूप अन्यथा कहै, सो किछु पूर्व गुरु वर्णन विष कह्या है। बहुरि द्रव्यलिंगी के महाव्रत होते भी सम्यक्रचारित्र न हो है। अर उनका मत के अनुसारि गृहस्थादिककै महाव्रत आदि बिना अंगीकार किए भी सम्यकूचारित्र हो है, तातै यह स्वरूप नाहीं। सांचा स्वरूप अन्य है, सो आगे कहेंगे।
यहाँ वे कहै हैं- द्रव्यलिंगी कै अन्तरंग विषै पूर्वोक्त श्रद्धानादिक न भए, बाह्य ही भए, ताते सम्यक्त्वादि न भए।
ताका उत्तर- जो अंतरंग नाहीं अर बाह्य धारै, सो तो कपटकरि थारै। सो वाकै कपट होय तो ग्रैवेयक कैसे जाय, नरकादि विषै जाय। बंध तो अंतरंग परिणामनिते हो है। सो अंतरंग जिनधर्मस्प परिणाम भए बिना अवेयक जाना सम्भव नाहीं । बहुरि व्रतादिरूप शुभोपयोगहीत देय का बंध मानै अर याहीको मोक्षमार्ग माने, सो बन्धमार्ग मोक्षमार्गको एक किया, सो यहु मिथ्या है। बहुरि व्यवहार धर्म विषै अनेक विपरीति निरूप हैं। निंदकको मारने में पाप नाहीं, ऐसा कहै है। सो अन्यमती निंदक तीर्थकरादिकके होते भी भए, तिनको इन्द्रादिक मारे नाहीं। सो पाप न होता, तो इन्द्रादिक क्यों न मारे। बहुरि प्रतिमाजीकै आभरणादि बनाये है, सो प्रतिबिम्ब तो वीतराग भाव बधावने को कारण स्थापन किया था। आभरणादि बनाए, अन्यमत की मूर्तिवत् यह भी भए। इत्यादि कहाँ ताँई कहिए, अनेक अन्यथा निरूपण करै हैं। या प्रकार श्वेताम्बर मत कल्पित जामना। यहाँ सम्यग्दर्शन आदिका अन्यथा निरूपणते मिथ्यादर्शनादिकहीकी पुष्टता हो है ताते याका श्रद्धानादि न करना।