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पाँचवाँ अधिकार - १३१
( एकासनकी ) प्रतिज्ञाकरि एक बार भोजन करें, तो धर्मात्मा ही है तैसे अपना श्रावकपद धारि थोरा भी धर्मसाधन करे तो धर्मात्मा ही है। यहाँ तो ऊँचा नाम धराय नीची क्रिया करनैर्ते पापीपना सम्भव हैं। यथायोग्य नाम धराय धर्मक्रिया करते तो पापीपना होता नाहीं । जेता धर्म्म साथै, तितना ही भला है।
यहाँ कोऊ कहै - पंचमकाल का अन्तपर्यन्त चतुविध संघका सद्भाव का है। इनको साधु न मानिए, तो किसको मानिए?
ताका उत्तर- जैसे इस कालविषै हंसका सद्भाव का है अर गम्यक्षेत्रविषै हंस नाहीं दीसे है, तो औरनिको तो हंस माने जाते नाहीं, हंसका लक्षण मिले ही हंस माने जांय । तैसे इस कालविषै साधुका सद्भाव है अर गम्यक्षेत्रविषै साधु न दीसे है, तो औरनिको तो साधु माने जाते नाहीं, साधु लक्षण मिले ही साधु माने जाय। बहुरि इनका भी प्रचार थोरे ही क्षेत्रविषै दीसे है, तहाँतें परे क्षेत्रविषै साधुका सद्भाव कैसे मार्ने ? जो लक्षण मिले माने, तो यहाँ भी ऐसे ही मानो । अर बिना लक्षण मिले ही माने तो तहाँ अन्य कुलिंगी हैं तिनहीको साधु मानो। ऐसे विपरीति होय, तातैं बने नाहीं । कोऊ कहै - इस पंचमकालमें ऐसे भी साधुपद हो हैं; तो ऐसा सिद्धांत का वचन बताओ। बिना ही सिद्धान्त तुम मानो हो, तो पापी होगा। ऐसे अनेक युक्तिकरि इनिकै साधुपना बने नाहीं । अर साधुपना बिना साधु मानि गुरु मानै मिथ्यादर्शन हो है, जातें भले साधुको गुरु माने ही सम्यग्दर्शन हो है ।
प्रतिमाधारी श्रावक न होनेकी मान्यता का निषेध
बहुरि श्रावक धर्मकी अन्यथा प्रवृत्ति करावे है। त्रसकी हिंसा स्थूल मृषादिक होतैं भी जाका किछू प्रयोजन नाहीं, ऐसा किंचित् त्याग कराय वाको देशव्रती भया कहै। सो वह त्रसघातादिक जामें होय ऐसा कार्य करै । सो देशव्रत गुणस्थानविषे तो ग्यारह अविरति कहे हैं, तहाँ त्रसघात कैसे सम्भवै? बहुरि ग्यारह प्रतिमा भेद श्रावक के हैं तिन विषै दशमी ग्यारमी प्रतिमाधारक श्रावक तो कोई होता ही नाहीं अर साधु होय। पूछे, तब कहै - पडिमाधारी श्रावक अबार होय सकता नहीं । सो देखो, श्रावकधर्म तो कठिन अर मुनिधर्म सुगम - ऐसा विरुद्ध भासे है। बहुरि ग्यारमी प्रतिमा धारककै थोरा परिग्रह, मुनिकै बहुतपरिग्रह बतावै, सो सम्भवता वचन नाहीं । बहुरि कहै, ए प्रतिमा तो धोरे ही काल पालि छोड़ि दीजिए है । सो ए कार्य उत्तम है तो धर्म बुद्धि ऊँची क्रियाको काहेको छोरै अर नीचे कार्य हैं तो काहेको अंगीकार करे। यहु सम्भवै ही नाहीं ।
बहुरि कुदेव कुगुरुको नमस्कारादिक करते भी श्राचकपना बतावै । कहै, धर्म्मबुद्धिकरि तो नाहीं बंदै हैं, लौकिक व्यवहार है। सो सिद्धांतविषै तो तिनिकी प्रशंसा-स्तवनको भी सम्यक्त्वका अतिचार कहे अर गृहस्थनिका भला मनावनेके अर्थ बंदना करतें भी किछू न कहै । बहुरि कहोगे - भय लज्जा कुतूहलादिककरि बंदे हैं; तो इनिही कारण निकरि कुशीलादि सेवन करतें भी पाप मत कहो, अंतरंग विषै पाप जान्या चाहिए। ऐसे सर्व आचरनविषैविरुद्ध होगा। देखो मिथ्यात्वसारिखे महापाप की प्रवृत्ति छुड़ावनेकी तो मुख्यता नाहीं अर पवनकायकी हिंसा ठहराय उघारे मुख बोलना छुड़ावनेकी मुख्यता पाईए । सो क्रमभंग उपदेश है। बहुरि