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मोक्षमार्ग प्रकाशक- १३२
धर्मके अंग अनेक हैं, तिनविषे एक परजीवकी दया ताको मुख्य कहै हैं ताका भी विवेक नाहीं । जलका छानना, अन्नका सोधना, सदोष वस्तुका भक्षण न करना, हिंसादिकरूप व्यापार करना इत्यादि याके अंगनिकी तो मुख्यता नाही।
मुँहपत्ति का निषेध बहुरि पाटीका बाँधना, शौचादिक थोरा करना, इत्यादि कार्यनि की मुख्यता करै है। सो मैलयुक्त पाटी के थूकका संबंधते जीव उपजै तिनका तो यत्न नाही अर पवनकी हिंसाका यत्न बतावै। सो नासिकाकरि बहुत पवन निकसै, ताका तो यत्न करते हो नाहीं। बहुरि जो उनका शास्त्रके अनुसार बोलनेहीका यत्न किया, तो सर्वदा काहेको राखिए । बोलिए, तब यत्न कर लीजिए । बहुरि जो कहै-भूति जाइए। तो इतनी भी याद न रहै, तो अन्य धर्मसाधन कैसे होगा; बहुरि शौचादिक थोरे करिए, तो सम्भवत्ता सौच तो मुनि भी करै हैं। तातै गृहस्थको अपने योग्य शौच करना। स्वीगापिकरि शौच किए बिना सामायिकादि क्रिया करनेते अविनय विक्षिप्तताआदि करि पाप उपजै। ऐसे जिनकी मुख्यता करे, तिनका भी ठिकाना नाहीं अर केई दया के अंग योग्य पाल है, हरितकायका त्याग आदि करै, जल थोरा नाखै, तो इनका हम निषेध करते नाहीं।
मूर्तिपूजाः निषेध का निराकरण बहुरि इस अहिंसा का एकांत पकड़ि प्रतिमा चैत्यालयपूजनादि क्रियाका उत्थापन करे है। सो उनहीं के शास्त्रनिविषै प्रतिमाआदिका निरूपण है, ताको आग्रहकरि लोपै है। भगवतीसूत्रविषे ऋद्भिधारी मुनिका निरूपण है तहाँ मेरुगिरि आदिविषै जाय “तत्थ चेययाई वंदई" ऐसा पाठ है। याका अर्थ यहु- तहाँ चैत्यनिको बदै हैं । सो चैत्य नाम प्रतिभा का प्रसिद्ध है। बहुरि वे हटकरि कहै-चैत्य शब्दके ज्ञानादिक अनेक अर्थ निपजै हैं, सो अन्य अर्थ है, प्रतिमाका अर्थ नाहीं। याको पूछिए है- मेरुगिरि नन्दीश्वरद्वीपविषै जाय-जाय तहाँ चैत्यवंदनाकरी, सो वहाँ ज्ञानादिककी वंदना करने का अर्थ कैसे सम्भवै? ज्ञानादिक की वंदना तो सर्वत्र सम्भवै । जो वंदने योग्य चैत्य यहाँ सम्मवै अर सर्वत्र न सम्भवै, ताको तहाँ यंदना करने का विशेष सम्भवै, सो ऐसा सम्भवता अर्थ प्रतिमा ही है अर चैत्यशब्दका मुख्य अर्थ प्रतिमा ही है, से प्रसिद्ध है। इस ही अर्थकरि चैत्यालय नाम सम्भव है। याको हठकरि काहेको लोपिए।
बहुरि नन्दीश्वर द्वीपादिकविषै जाय, देवादिक पूजनादि क्रिया करै हैं, ताका व्याख्यान उनकै जहाँ-तहाँ पाइए है। बहुरि लोकविषै जहाँ तहाँ अकृत्रिम प्रतिमाका निरूपण है। सो या रचना अनादि है सो यहु रचना भोग कुतूहलादिकके अर्थि तो है नाहीं । अर इन्द्रादिकके स्थाननिविषै निःप्रयोजन रचना सम्मयै नाहीं। सो इन्द्रादिक तिनको देखि कहा करै है। के तो अपने मन्दिरनिविर्ष निःप्रयोजन रचना देखि उससे उदासीन होते होंगे, तहाँ दुःखी होते होंगे, सो सम्भवै नाहीं । के आछी रचना देखि विषय पोषते होंगे, सो अरहंत मूर्तिकरि सम्यग्दृष्टी अपना विषय पोष, यह भी सम्भवै नाहीं। तारौं तहाँ तिनकी भक्तिआदिक ही करै है यहु ही सम्भवै है । सो उनके सूर्याभदेवका व्याख्यान है। तहाँ प्रतिमाजी के पूजनेका विशेष वर्णन किया