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पाँचवाँ अधिकार १२:१
उदय कहोगे तो चांडालादिककै भी कुल अपेक्षा ही नीच गोत्र का उदय कहो। ताका सद्भाव तुम्हारे सूत्रनिविषै भी पंचम गुणस्थान पर्यंत ही कया है । सो कल्पित कहने में पूर्वापर विरुद्ध होय ही होय । तातें निकै मोक्षका कहना मिथ्या है।
ऐसे तिनहूने सर्वकै मोक्षकी प्राप्ति कही, सो ताका प्रयोजन यहु है जो सर्वका भला मनावना, मोक्षका लालच देना अर अपना कल्पितमतकी प्रवृत्ति करनी । परन्तु विचार किए मिथ्या भासै है । अछेरों का निराकरण
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बहुरि तिनके शास्त्रनिविषै 'अछेरा' कहे हैं। सो कहे है - हुण्डावसर्पिणी के निमित्त भए हैं, इनको छेड़ने नाहीं । सो कालदोषर्तें केई बात होय परन्तु प्रमाणविरुद्ध तो न होय जो प्रमाण विरुद्ध भी होय, तो आकाश के फूल, गधे के सींग इत्यादि होना भी बने सो सम्भवे नाहीं । वे अछेरा कहै है सो प्रमाण विरुद्ध हैं। काहे सो कहिए हैं
वर्द्धमानजिन केतेककालि ब्राह्मणीके गर्भविषै रहे पीछे क्षत्रियाणी के गर्भ विषै बधे, ऐसा कहे हैं। सो काहूका गर्भ काहूकै धरया प्रत्यक्ष भासै नाहीं, उन्मानादिकमें आवै नाहीं । बहुरि तीर्थंकरके भया कहिए, तो गर्भकल्याणक काहू के घरि भया, जन्मकल्याणक काहूके घरि भया । केतेक दिन रत्नवृष्ट्यादिक काहूके घरि भए, केतेक दिन काहूके घरि भए । सोलह स्वप्न किसी को आए, पुत्र काहूकै भया इत्यादि असम्भव भासै । बहुरि माता तो दोय भई अर पिता तो एक ब्राह्मण ही रह्या जन्म कल्याणादिविषै वाका सन्मान न किया, अन्य कल्पित पिताका सम्मान किया। सो तीर्थकरकै दोय पिताका कहना महाविपरीत भासै है । सर्वोत्कृष्टपद के धारककै ऐसे वचन सुनने भी योग्य नाहीं । बहुरि तीर्थंकरके भी ऐसी अवस्था भई तो सर्वत्र ही अन्य स्त्रीका गर्भ अन्यस्त्रीकै धरि देना ठहरे। तो वैष्णव जैसे अनेक प्रकार पुत्र - पुत्रीका उपजना बतावे है, यहु कार्य भया। सो ऐसे निकृष्ट काल विषै तो ऐसे होय ही नाहीं, तहाँ होना कैसे सम्भवै? तातें यहु मिथ्या है। बहुरि मल्लि तीर्थंकरको कन्या कहे हैं। सो मुनि देवादिककी सभा विषै स्त्रीका स्थिति करना उपदेश देना न सम्भवै वा स्त्रीपर्याय हीन है सो उत्कृष्ट तीर्थंकरपदधारककै न बने । बहुरि तीर्थंकरकै नग्न लिंग ही कहे है सो स्त्रीकै नग्नपनो न सम्भवै। इत्यादि विचार किए असम्भव भासै है ।
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बहुरि हरिक्षेत्रका भोगभूमियाँको नरक गया कहे, सो बंध वर्णन विषै तो भोगभूमियाँकै देवगति देवायुहीका बंध कहै, नरक कैसे गया। सिद्धान्तविषै तो अनन्तकाल विषै जो बात होय, सो भी कहे जैसे तीसरे नरक पर्यन्त तीर्थंकर प्रकृतिका सत्त्व का, भोगभूमियाँकै नरक आयु गतिका बंध न कराया, सो केवली भूले तो नाहीं । तातें यहु मिथ्या है। ऐसे सर्व अछेरे असम्भव जानने । बहुरि वे कहै हैं इनको छेड़ने नाहीं सो झूठ कहनेवाला ऐसे ही कहे।
बहुरि जो कहोगे - दिगम्बरविषै जैसे तीर्थंकरकै पुत्री, चक्रवर्तीका मानभंग इत्यादि कार्य कालदोष भया कहे हैं, तैसे ए भी भए । सो ये कार्य तो प्रमाणविरुद्ध नाहीं । अन्यकै होते थे सो महंतनिकै भए तार्ते कालदोष का है । गर्भहरणादि कार्य प्रत्यक्ष अनुमानादितें विरुद्ध, तिनका होना कैसे सम्भवे ? बहुरि अन्य