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पांचवा अथिकार-१२५ ।
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परिणामनिकी थिरताकरि धर्म ही साधै हैं तातै ममत्व नाहीं। सो बाह्य क्रोध मति करो परन्तु जाका ग्रहण विषे इष्ट बुद्धि होय तो ताका वियोगविषै अनिष्टबुद्धि होय ही होय । जो अनिष्टबुद्धि न भई तो ताके अर्थि याचना काहेको करिए है? बहुरि बेचते नाहीं, सो धातु राखने अपनी हीनता जानि नाहीं बेचिए है। जैसे धनादि राखने तैसे ही वस्त्रादि राखने। लोकविषै परिग्रह के चाहक जीवनिकै दोउनिकी इच्छा है। ताते चौरादिक के भयादिकके कारण दोऊ समान हैं। बहुरि परिणामनि की थिरताकरि धर्मसाधनेही तैं परिग्रहपना न होय तो काहूको बहुत शीत लागेगा सो सौडि राखि परिणामनिकी थिरता करेगा अर धर्मसाधेगा तो वाको भी निःपरिग्रह कही। ऐसे गृहस्थधर्म मुनिधर्म विषय विशेष कहा रहेगा। जाकै परिषह सहने की शक्ति न होय सो परिग्रह राखि धर्म साधै ताका नाम गृहस्थधर्म अर जाकै परिणाम निर्मल भए परीषहकरि व्याकुल न होय सो परिग्रह न राखे अर धर्म साधै ताका नाम मुनियर्म, इतना ही विशेष है। बहुरि कहोगे, शीतादिकी परीषहकरि व्याकुल कैसे न होय। सो व्याकुलता तो मोह के उदयके निमित्ततें है, सो मुनिके षष्ठादि गुणस्थाननिविषै तीन चौकड़ी का उदय नाहीं अर संचलन के सर्वघाती स्पर्द्धकनिका उदय नाही, देशघाती स्पर्धकनिका उदय है सो तिनका किछू बल नाहीं। जैसे वेदक सम्यग्दृष्टिकै सम्यक्माोहनीय का उदय है सो सम्यक्त्व को घात न करि सके तैसे देशघाती संज्वलनका उदय परिणामनिको व्याकुल करि सके नाहीं। अहो मुनिनिकै अर औरनिकै परिणामनिकी समानता है नाहीं। और सबनिकै सर्वघाती का उदय है, इनिकै देशघाती का उदय है। तातें औरनिकै जैसे परिणाम होय तैसे उनके कदाचित् न होय। ताते जिनकै सघातीकषायनिका उदय होय ते गृहस्थ ही रहैं अर जिनकै देशघाती का उदय होय ते मुनिधर्म अंगीकार करै। ताकै शीतादिककरि परिणाम व्याकुल न होय तातै वस्त्रादिक राखै नाहीं।
विशेष : पूज्य जयधवलाजी में स्पष्ट लिखा है कि- मिच्छाइट्रिठप्पटुडि जाव असंजदसम्माइट्ठित्ति ताव एदेसि कम्माणमणुमागुदीरणा सव्यघादी देसघादी च होदि; संकिलेसविसोहिवलेण; संजदासजदपटुडि उपरि सव्यथेव देसघादी होदि। तत्थ सव्यधादिउदीरणाए सग्गुणपरिणामेण विराझदो ति (ज.ध. ११/३६)।
अर्थ- मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान तक तो इन कर्मों की अनुभाग उदीरणा (अर्थात् वेदन) संक्लेश और विशुद्धि के वश से देशघाती और सर्वघाती दोनों प्रकार की होती है। फिर संयतासंयत गुणस्थान से लेकर आगे सर्वत्र देशघाती होती है। क्योंकि चार संज्वलन की सर्वघाती उदीरणा (वेदन) का संयमासंयम आदि गुणरूप परिणामों के साथ विरोध है।
जयथवल पु. १३ पृ. १५५, प्रस्तावना पृ. १६ तथा क.पा. सु. पृ. ६६७ आदि में भी लिखा है कि - चदुसंजलण णवणोकसायाणं सब्बघादिफहयोदयक्खएण तेसि चेव देसपादिफदोषएण लद्धप्पसरूपत्तादो संजमासंजम ललि खओवसमिया ति।
अर्थ- चार संज्वलन तथा ६ नोकषाय के सर्वधाती स्पर्धको के उदय का क्षय होने से और