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पाँच अधिकार- ११८.
अन्यमत को आदरौ सो सर्वथा होय नाहीं । जातै सर्वज्ञका ज्ञानतैं किछू छिप्या नाहीं है । तातें अन्यमतनिका श्रद्धानादिक छोरि जनमतका दृढ़ श्रद्धानादिक करना।
बहुरि कालदोष कषायी जीवनिकरि जिनमतविषै भी कल्पितरचना करी है, सो ही दिखाईए हैश्वेताम्बर मत निराकरण
श्वेताम्बर मतवाले काहूने सूत्र बनाए, तिनको गणधर के किए कहै हैं । सो उनको पूछिए है - गणधर आचारांगादिक बनाए हैं सो तुम्हारे अबार पाईए है सो इतने प्रमाण लिए ही किए थे कि घना प्रमाण लिए किए थे। जो इतने प्रमाण लिए ही किए थे, तो तुम्हारे शास्त्रनि विषै आचारांगादिकनिके पदनिका प्रमाण अठारह हजार आदि कया है, सो तिनकी विधि मिलाय यो पदका प्रमाण कहा? जो विभक्ति अंतको पद कहोगे, तो कहे प्रमाणतें बहुत पद होइ जाहिंगे, अर जो प्रमाणपद कहोगे, तो तिस एकपद के साधिक इक्यावन कोड़ि श्लोक हैं। सो ए तो बहुत छोटे शास्त्र हैं सो बने नाहीं । बहुरि आचारांगादिकर्ते दशवेकालिकादिक का प्रमाण घाटि का है। तुम्हारै बधता है सो कैसे बने? बहुरि कहोगे, आचारांगादिक बड़े थे, कालदोष जानि तिनही में स्यों केलेक सूत्र काढ़ि ए शास्त्र बनाए हैं। तो प्रथम तो टूटकग्रन्थ प्रमाण नाहीं । बहुरि यह प्रबन्ध है, जो बड़ा ग्रंथ बनाये तो वा विषै सर्व वर्णन विस्तार लिए करें अर छोटा ग्रन्थ बनावे तो तहाँ संक्षेप वर्णन की परन्तु सम्बन्ध टूटे नाहीं । अर को बढ़ा ग्रन्थ में थोरासा कथन काहि लीजिए, तो तहाँ सम्बन्ध मिले नाहीं कथन का अनुक्रम टूटि जाय। सो तुम्हारे सूत्रनिर्विषै तो कथादिकका भी सम्बन्ध मिलता भासै है- टूटकपना भासै नाहीं । बहुरि अन्य कवीनितैं गणधरकी तौ बुद्धि अधिक होती, ताके किए ग्रन्थनिमें थोरे शब्द में बहुत अर्थ चाहिए सो तो अन्य कवीनिकीसी भी गम्भीरता नाहीं । बहुरि जो ग्रन्थ बनावै सो अपना नाम ऐसे धरै नाहीं जो 'अमुक कहै है,' 'मैं कहूँ हूँ' ऐसा कहै सो तुम्हारे सूत्रनिविषै 'हे गौतम' वा 'गौतम कहै है' ऐसे वचन हैं सो ऐसे वचन तो तब ही सम्भवैं जब और कोई कर्ता होय । तातैं ये सूत्र गणधरकृत नाहीं और के किए हैं। गणधर का नामकरि कल्पितरचना को प्रमाण कराया चाहे है। सो विवेकी तो परीक्षाकरि मानें, कह्या ही तो न मार्ने ।
बहुरि वह ऐसा भी कहै हैं जो गणधर सूत्रनिके अनुसार कोई दशपूर्वधारी भया है, ताने ए सूत्र बनाए हैं। तहाँ पूछिए है जो नए ग्रन्थ बनाए हैं तो नया नाम धरना था, अंगादिकके नाम काहेको धरे । जैसे कोई बड़ा साहूकारकी कोठी का नामकर अपना साहूकारा प्रगट करे, तैसे यह कार्य भया । सांचेको तो जैसे दिगम्बरविषै ग्रन्थनिके और नाम धरे अर अनुसारी पूर्व ग्रन्थनिका कह्या, तैसे कहना योग्य था। अंगादिकका नाम धरि गणधर कृत का भ्रम काहे को उपजाया । तार्ते गणधर के पूर्वाधारी के वचन नाहीं । बहुरि इन सूत्रनि विषै जो विश्वास अनावने के अर्थ जिनमत अनुसार कथन है सो तो सांच है ही, दिगम्बर भी तैसे ही कहे हैं। बहुरि जो कल्पित रचना करी है तामें पूर्वापर बिरुद्धपनो वा प्रत्यक्षादि प्रमाण में विरुद्धपनो भासे है, सो ही दिखाइए है
अन्य लिंग से मुक्ति का निषेध
अन्य लिंगीकै वा गृहस्थकै वा स्त्रीकै वा चांडालादि शूद्रनिकै साक्षात् मुक्तिकी प्राप्ति होनी मान है।