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पाँचवाँ अधिकार-११३
स्वरूप वीतराग ही निरूपणकरि केवल वीतराग ताहीको पोथै है सो यहु प्रगट है। हम कहा कहैं, अन्यमती भर्तृहरि ताहू ने वैराग्यप्रकरण विषै' ऐसा कह्या है
२ एको रागिषु राजते प्रियतमादेहार्द्धपारी हरो, नीरागेषु जिनो विमुक्तललनासंगो न यस्मात्परः। दुर्वारस्मरबाण-पन्नगविषव्यासक्तमुग्यो जनः,
शेषः कामविडंबितो हि विषयान् मोक्तुं न मोक्तुं क्षमः।७१।। या विषै सरागीनिविषै महादेवको प्रधान कह्या अर पोतरागीनिधि चिनदेवको प्रधान कारखा है । बहुरि सरागभाव वीतरागभावनिविषै परस्पर प्रतिपक्षीपना है सो ये दोऊ भले नाहीं। इनविषै एक ही हितकारी है सो वीतराग भाव ही हितकारी है, जाके होते तत्काल आकुलता मिटै, स्तुतियोग्य होय । आगामी भला होना सब कहै। सरागभाव होते तत्काल आकुलता होय, निंदनीक होय, आगामी बुरा होना भास तात जामें वीतरागभावका प्रयोजन ऐसा जैनमत सो ही इष्ट है। जिनमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किए हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं। इनको समान कैसे मानिए। बहुरि वह कहै है-जो यहु सांच परन्तु अन्यमतकी निन्दा किए अन्यमती दुःख पावै, विरोथ उपजै, ताः काहेको निन्दा करिए। तहाँ कहिए है- जो हम कषायकरि निन्दा करै वा औरनिकों दुःख उपजावें तो हम पापी ही हैं। अन्यमतके श्रद्धानादिककरि जीवनिकै अतत्त्वश्रद्धान दृढ़ होय, तातें संसारविष जीव दुःखी होय तातै करुणा भावकरि यथार्थ निरूपण किया है। कोई बिनादोष दुःख पाये, विरोध उपजावै तो हम कहा करें। जैसे मदिराकी निन्दाकरते कलाल दुःख पावै, कुशीलकी निन्दा करतें वेश्यादिक दुःख पावै, खोटा-खरा पहचाननेकी परीक्षा बतावत ठग दुःख पावै तो कहा करिए। ऐसे जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए तो जीवनिका भला कैसे होय? ऐसा तो कोई उपदेश नाही, जाकर सर्व ही चैन पावै। बहुरि यह विरोध उपजादै सो विरोध तो परस्पर हो है। हम लरै नाही, वे आप ही उपशांत होय जाहिंगे। हमको तो हमारे परिणामोंका फल होगा।
बहुरि कोऊ कई- प्रयोजनभूत जीयादिक तत्त्वनिका अन्यथा श्रद्धान किए मिथ्यादर्शनादिक हो हैं, अन्यमतनिका श्रद्धान किए कैसे मिथ्यादर्शनादिक होय?
ताका समाधान-अन्यमतनिविषै विपरीत युक्ति बनाय जीवादिक तत्त्वनिका स्वरूप यथार्थ न भासै यह ही उपाय किया है सो किस अर्थि किया है। जीवादि तत्त्वनिका यथार्थ स्वरूप भासै तो वीतरागभाव भए ही महंतपनो भासै। बहुरि जे जीव वीतरागी नाहीं अर अपनी महंतता चाहै, लिनि सरागभाव होते महंतता
१. यह श्लोक 'वैराग्यप्रकरण' में नहीं किन्तु शृंगारप्रकरण में है। २. सगी पुरुषों में तो एक महादेव शोभित होता है, जिसने अपनी प्रियतमा पार्वती को आधे शरीर में धारण कर रखा
है और यीतरागियों में जिनदेव शोभित होते हैं, जिनके समान स्त्रियों का संग छोड़नेवाला दूसरा कोई नहीं है। शेष लोग तो दुर्निवार कामदेव के बाणरूप सॉं के विषसे मूर्छित हुए हैं जो कापकी विडम्बना से न तो विषयों को भली भांति भोग सकते है और न छोड़ हो सकते हैं।