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पाँचवाँ अधिकार- ११५
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“यं शैवाः समुपासते शिव इति ब्रह्मेति वेदान्तिनः बौद्धा बुद्ध इति प्रमाणपटयः कर्त्तेति नैयायिकाः । अर्हन्नित्यथ जैनशासनरताः कर्मेति मीमांसकाः
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सोऽयं यो विदधातु वांछितफलं त्रैलोक्यनाथः प्रभुः ||११|
यहाँ छहीं मर्तानावर्षे एक ईश्वर कह्या तहाँ अरहंतदेव के भी ईश्वरपना प्रगट किया। यहाँ कोऊ कहै, जैसे यहाँ सर्वमतविषै एक ईश्वर कह्या तैसे तुम भी मानो ।
ताको कहिए, तुमने यह कया है, हम तो न कह्या । तार्ते तुम्हारे मतविषे अरहंतकै ईश्वरपना सिद्ध भया । हमारे मतविषे भी ऐसे ही कहे तो हम भी शिवादिकको ईश्वर मानैं । जैसे कोई व्यापारी सांचा रत्न दिखावे, कोई झंडा रत्न दिखावे तहाँ झूठा रत्नवाला तो सर्व रत्ननिको समान मोल लेने के अर्थि समान कहै । सांचा रत्नवाला कैसे समान माने ? तैसे जैनी सांचा देवादिको निरूपै, अन्यमती झूठा निरूपै। तहाँ अन्यमती अपनी समान महिमा के अर्थि सर्वको समान कहै- जैनी कैसे माने? बहुरि 'रुद्रयामलतंत्र' विषै भवानीसहस्रनामविषै ऐसे कया है
“कुण्डासना जगद्धात्री बुद्धमाता जिनेश्वरी ।
जिनमाता जिनेन्द्रा च शारदा हंसवाहिनी ॥ १३ ॥ ॥
यहाँ भवानी के नाम जिनेश्वरी इत्यादि कहे, तार्तें जिन का उत्तमपना प्रगट किया। बहुरि 'गणेशपुराण' विषै ऐसे कहता है
“जैनं पाशुपतं सांख्यं । "
बहुरि व्यासकृत सूत्रविषे ऐसा कया है
"जैना एकस्मिन्नेय वस्तुनि उभयं प्ररूपयन्ति स्याद्धादिनः ।”
इत्यादि तिनिके शास्त्रनिविषे जैन निरूपण है, तातें जैनमतका प्राचीनपना भासे है। बहुरि भागवत का पंचमस्कंधविषै ऋषभावतार का वर्णन है। तहाँ यहु करुणामय, तृष्णादिरहित ध्यानमुद्राधारी सर्वाश्रम करि पूजित कया है, ताके अनुसारि अरहंत राजा प्रवृत्ति करी ऐसा कहै है । सो जैसे राम कृष्णादिक अवतारनिके अनुसारि अन्यमत तैसे ऋषभावतार के अनुसारि जैनमत, ऐसे तुम्हारे मतहीकरि जैन प्रमाण भया । यहाँ इतना विचार और किया चाहिए- कृष्णादि अवतारनिके अनुसारि विषयकषायनिकी प्रवृत्ति हो है ।
१. यह हनुमन्नाटक के मंगलाचरणका तीसरा श्लोक है। इसमें बताया है कि जिसको शैव लोग शिव कहकर, वेदान्ती ब्रह्म कहकर बौद्ध बुद्धदेव कहकर, नैयायिक कर्ता कहकर, जैनी अर्हन् कहकर और मीमांसक कर्म कह कर उपासना करते हैं, वह त्रैलोक्यनाथ प्रभु तुम्हारे मनोरथों को सफल करे ।
२. 'प्ररूपयन्ति स्याद्वादिनः' इति खरड़ा प्रतौ पाठः ।
३. भागवत स्कन्ध ५ अ. ५, २६ ।