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पांचा अधिकार--१०५
प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति, निग्रहस्थान। तहां प्रमाण च्यारि प्रकार कहै है। प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द, उपमा। बहुरि आत्मा, देह, अर्थ, बुद्धि इत्यादि प्रमेय कहै हैं। बहुरि 'यहु कहा है' ताका नाम संशय है। जाके अर्थि प्रवृत्ति होय सो प्रयोजन है। जाको वार्दा प्रतिवादी मानै सो दृष्टांत है। दृष्टांतकरि जाको ठहराइए सो सिद्धान्त है। बहुरि अनुमान के प्रतिज्ञा आदि पंच अंग ते अवयव हैं। संशय दूरि भए किसी विचारतें ठीक होय सो तर्क है। पीछे प्रतीतिरूप जानना सो निर्णय है। आचार्य शिष्यकै पक्ष प्रतिपक्षकरि अभ्यास सो वाद है। जाननेकी इच्छारूप कथाविषै जो छल जाति आदि दूषण होय सो जल्य है। प्रतिपक्ष-रहित वाद सो वितंडा है। सांचे हेतु नाहीं, से असिद्ध आदि भेद लिए हेत्वाभास हैं। छललिये बचन सो छल हैं। सांचे दूषण नाहीं ऐसे दूषणाभास सो जाति है। जाकरि परवादी का निग्रह होय सो निग्रहस्थान है। या प्रकार संशयादि तत्त्व कहे सो ए तो कोई वस्तुस्वरूप तो तत्त्व है नाहीं । ज्ञान के निर्णय करने को वा वादकार पांडित्य प्रगट करने को कारणभूत विद्याररूप तत्त्व कहे सो इनिः परमार्थ कार्य कहा होई? काम क्रोधादि भावको मेटि निराकुल होना सो कार्य है। सो तो इहां प्रयोजन किछु दिखाया ही नाहीं । पंडिताई की नाना युक्ति बनाई सो यह भी एक चातुर्य है, ताते ये तत्त्व तत्त्यभूत नाहीं। बहुरि कहांगे इनका जाने बिना प्रयोजनभूत तत्त्वनिका निर्णय न करि सकै, तातै ए तत्त्व कहे हैं। सो ऐसी परम्परा तो व्याकरण वाले भी कहै हैं। व्याकरण पढ़े अर्थनिर्णय होइ वा भोजनादिक के अधिकारी भी कह हैं कि भोजन किए शरीर की स्थिरता भए तत्त्वनिर्णय करने को समर्थ होय सो ऐसी युक्ति कार्यकारी नाहीं। बहुरि जो कहोगे, व्याकरण भोजनादिक तो अवश्य तत्त्वज्ञानको कारण नाहीं, लौकिक कार्य साधने को भी कारण हैं, सो जैसे ये हैं तैसे ही तुम तत्त्व कहे, सो भी लौकिक (कार्य) साधनेको कारण हो हैं। जैसे इन्द्रियादिक के जाननेको प्रत्यक्षादि प्रमाण कहे वा स्थाणु पुरुषादिविर्षे संशयादिकका निरूपण किया। तातें जिनको जाने अवश्य काम क्रोधादि दूरि होय, निराकुलता निपजै, वे ही तस्व कार्यकारी हैं। बहुरि कहोगे, जो प्रमेय तत्त्वावेष आत्मादिकका निर्णय हो है सो कार्यकारी है। सो प्रमेय तो सर्व ही वस्तु है। प्रमितिका विषय नाही, ऐसा कोई भी नाहीं, तातै प्रमेय तत्त्व काहेको कहा। आत्मा आदि तत्त्व कहने थे। बहुरि आत्मादिकका भी स्वरूप अन्यथा प्ररूपण किया सो पक्षपातरहित विचार किए मासे है। जैसे आत्माके दोय भेद कहै हैं-परमात्मा, जीवात्मा। तहां परमात्मा को सर्वका कर्ता बतावै हैं। तहाँ ऐसा अनुमान करै हैं जो यह जगत् कर्त्ताकरि निपज्या है, जाते यह कार्य है। जो कार्य है सो कर्ताकार निपज्या है, जैसे घटादिक । सो यह अनुमानाभास है। जाते ऐसा अनुमानान्तर सम्भवै है। यह जगत् सर्व कर्ताकार निपज्या नाहीं जाते याविषै कोई अकार्यरूप भी पदार्थ है। जो अकार्य है सो कर्त्ताकरि निपज्या नाही, असे सूर्यबिम्बादिक। तात अनेक पदार्थनिका समुदायरूप जगत् तिसविषे कोई पदार्थ कृत्रिम हैं सो मनुष्यादिककार किए होय है, कोई अकृत्रिम हैं मो ताका कर्ता नाहीं। यह प्रत्यक्षादि प्रमाण के अगोचर है ताल ईश्वरको: कर्ता मानना मिथ्या है। बहुरि जीवात्माको प्रति शरीर भिन्न कहे हैं। सो यह सत्य है परन्तु मुक्त गए पीई भी भिन्न ही मानना योग्य है। विशेष पूर्व कह्या ही है। ऐसे ही अन्य तत्त्वनिको मिथ्या प्ररूप है। बहुरि प्रमाणादिकका भी स्वरूप अन्यथा कल्पै है सो जैनग्रन्थनिः परीक्षा किए मासै है। ऐसे . नैयायिकमतविष कहे कल्पित तत्त्व जानने।