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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०४
बहुरि प्रकृति पुरुष की भूलि है कि कोई व्यंतरीबत जुदी ही है जो जीवको आनि लागै है। जो याकी . भूलि है तो प्रकृति” इन्द्रियादिक वा स्पर्शादिक तत्त्व उपजे कैसे मानिए? अर जुदी है तो वह भी एक वस्तु है, सर्व कर्तव्य धाका टहस्या । पुरुषको सिधू कर्तव्य ही रखी नाही, तब काहेको उपदेश दीजिए है। ऐसे यहु मोक्ष मानना मिथ्या है। बहुरि तहाँ प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम ए तीन प्रमाण कह है सो तिनिका सत्य असत्यका निर्णय जैनके न्यायग्रन्थनितें जानना।
विशेष- सांख्यदर्शन में तो पुरुषबहुत्व माना ही है। सांख्यों के आचार्यों ने पुरुष की अनेकता का प्रतिपादन किया ही है। सांख्यकारिका १८ में युक्ति के द्वारा पुरुष की अनेकता (बहुत्व) साधी ही है। वहाँ कहा है कि जन्म-मरण (भिन्न-भिन्न समय में होने से) तथा इन्द्रियों की (भिन्नतारूप) व्यवस्था के कारण, एक साथ सबकी प्रवृत्ति के अभाव के कारण तथा त्रिगुण की प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न स्थिति होने के कारण पुरुष (आत्मा) की अनेकता सिद्ध है। इस प्रकार सांख्यदर्शन तो अनेकपुरुषत्व स्वीकार करते ही हैं। परन्तु अद्वैतवादी वेदान्ती पुरुष (आत्मा) की एकता का प्रतिपादन करते हैं।
कपिल, आसुरि, पंचशिख तथा पतंजलि इत्यादि आचार्य पुरुष की अनेकता का निरूपण करते हैं जबकि हरिहर, हिरण्यगर्भ एवं व्यास आदि वेदवादी आचार्य सभी व्यक्तियों में एक ही आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं।
सांख्यदर्शन के आचार्यों का कथन है कि सांख्य के पुरुषबहुत्व और श्रुतियों के एकात्मवाद में मूलतः कोई विरोध नहीं है। क्योंकि श्रुतियों में आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन जाति की दृष्टि से हुआ है। जैसे सभी प्रकार के वृक्षों के लिए जातिपरक एक ही शब्द 'वृक्ष' का प्रयोग होता है, उसी प्रकार अनन्त पुरुषों में भी पुरुषत्व वस्तुतः एक ही है। यानी जातितः आत्मा एक है अतः श्रुतिवचन ठीक है। तथा व्यक्तितः आत्मा अनेक हैं अतः सांख्यदर्शन का मत भी ठीक ही है। (सांख्यतत्त्व कौमुदी प्रस्तावना पृ. ३८, मूल पृ. १०२ कारिका १८ की टीका : व्याख्याकार- डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय)
बहुरि इस सांख्यमतविष कोई ईश्वरको न मान है। केई एक पुरुषको ईश्वर मान हैं। कई शिवको, केई नारायणको देव माने हैं। अपनी इच्छा अनुसारि कल्पना करै हैं, किछू निश्चय है नाहीं। बहुरि इस मतविष केई जटा धारै हैं, केई चोटी राखै हैं, केई मुण्डित हो हैं, केई काथे वस्त्र पहरै हैं इत्यादि अनेक प्रकार भेष धारि तत्त्वज्ञानका आश्रयकरि महंत कहावै हैं। ऐसे सांख्यमतका निरूपण किया।
नैयायिक मत निराकरण : . बहुरि शिवमतविषै दोय भेद हैं-नैयायिक, वैशेषिक। तहां नैयायिकमत विषै सोलह तत्त्व कहै हैं।