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मोक्षमार्ग प्रकाशक-१०२
करावने का प्रयोजन प्रगट किया, वेदान्तविषै शुद्ध निरूपणकरि स्वच्छन्द होने का प्रयोजन दिखाया। ऐसे ही अन्य जानने। बहुरि यहु काल तो निकृष्ट है सो इसविष तो निकृष्ट धर्म ही की प्रवृत्ति विशेष होय है। देखो इस कालविर्षे मुसलमान प्रधान हो गए, हिन्दू घटि गए। हिन्दूनिविष और बधि गए जैनी घटि गए। सो यहु कालका दोष है, ऐसे इहाँ अबार मिथ्याधर्म की प्रवृत्ति बहुत पाइए है। अब पंडितपना के बलते कल्पितयुक्तिकरि नाना मत स्थापित भए हैं तिनिविषे जे तत्त्वादिक मानिए हैं तिनका निरूपण कीजिए है
सांख्यमत निराकरण तहाँ सांख्यमतविषै पच्चीस तत्त्व मानै हैं' सो कहिए हैं सत्त्व रज तम ए तीन गुण कहै। तहाँ सत्त्वकरि प्रसाद हो है, रजोगुणकरि चित्तकी चंचलता हो है, तमोगुणकरि मूढ़ता हो है, इत्यादि लक्षण कहै हैं। इनरूप अवस्था ताका नाम प्रकृति है। बहुरि तिसते बुद्धि निपजै है, याहीका नाम महत्तत्त्व है। बहुरि तिसते अहंकार निपजै है। बहुरि तिसत सोलहमात्रा हो हैं । तहाँ पाँच तो ज्ञानइन्द्रिय हो हैं-स्पर्शन, रसन, प्राण, चक्षु श्रोत्र। बहुरि एक मन हो है। बहुरि पोच कर्मइन्द्रिय हो है-वचन, चरण, हस्त, लिंग, पायु। बहुरि पाँच तन्मात्रा हो हैं- रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द । बहुरि रूपः अग्नि, रसते जल, गंधर्तं पृथ्वी, स्पर्श पवन, शब्दतै आकाश, ऐसे भया कहै हैं। ऐसे चौईस तत्त्व तो प्रकृतिस्वरूप हैं। इनितै भिन्न निर्गुण कर्ता भोक्ता एक पुरुष है। ऐसे पच्चीस तत्त्व कहै है सो ए कल्पित हैं।
विशेष : सांख्यदर्शन का यह एक मत है। इसके विपरीत वहीं पर दूसरा मत भी उपलब्ध है। सांख्यदर्शन का मुख्य ग्रन्थ सांख्यकारिका है। उस पर अनेक टीकायें उपलब्ध हैं। उनमें से वाचस्पति मिश्र तथा जयमंगलाकार आदि का मत है कि शब्द से आकाश, शब्द व स्पर्श से वायु; शब्द, स्पर्श व रूप से अग्नि; शब्द, स्पर्श, रूप व रस से जल तथा शब्द, स्पर्श, रूप व रस तथा गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न होती है परन्तु गौड़पाद भाष्य तथा माठरवृत्ति की मान्यतानुसार शब्द से आकाश, स्पर्श से वायु, रूप से अग्नि, रस से जल तथा गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न होती है। यानी ये शब्द आदि अलग-अलग स्वतन्त्र रूप से आकाश आदि को उत्पन्न करते हैं। मूल में पण्डित टोडरमलजी ने मात्र गौड़पाद तथा माठर का मत लिखा है। (देखें सांख्यकारिका २२ की विभिन्न
टीकाएँ)
जातें राजसादिक गुण आश्रय बिना कैसे होय । इनका आश्रय तो चेतनद्रव्य ही सम्भव है। बहुरि इनित बुद्धि भई कहै सो बुद्धि नाम तो ज्ञान का है। सो ज्ञानगुणका धारी पदार्थविषै ए होते देखिए हैं। इनितें ज्ञान भया,कैसे मानिए। कोई कहै-बुद्धि जुदी है, ज्ञान जुदा है तो मन तो आगै षोड़शमात्राविषै कह्या अर ज्ञान जुदा कहोगे तो बुद्धि किसका नाम ठहरेगा। बहुरि तिसत अहंकार भया कथा सो परवस्तु विष 'मैं करूँ
१. प्रकृतेमहांस्ततोळंकारस्तस्माद्गणश्च षोडशकः ।
तस्मादपि षोडशकात्पंचभ्यः पंचभूतानि।। - सांख्य का. १२ ।।