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रोचव अधिकार - १८
बहुरि एक प्रकार मोक्षको ऐसा भी केई कहै है जो बुद्धिआदिकका नाश भए मोक्ष हो है। सो शरीर के अंगभूत मन इन्द्रिय तिनके आधीन ज्ञान न रह्या । काम क्रोधादिक दूरि भए ऐसे कहना तो बने है अर तहाँ चेतनताका भी अभाव भया मानिए तो पाषाणादि समान जड़ अवस्थाको कैसे भली मानिए । बहुरि भला साधन करते तो जानपना बधै है, बहुत भला साधन किए जानपनेका अभाव होना कैसे मानिए? बहुरि लोकविषै ज्ञानकी महंततातें जड़पनाकी तो महंतता नाही, तातै यहु बनै नाहीं। ऐसे ही अनेक प्रकार कल्पनाकरि मोक्षको बतावै सो किडू यथार्थ तो जानै नाही, संसार अवस्थाकी मुक्ति अवस्थाविषै कल्पनाकरि अपनी इच्छा अनुसारि बकै है। या प्रकार वेदांतादि मतनियिषे अन्यथा निरूपण करै है।
मुस्लिममत सम्बन्धी विचार बहुरि ऐसे ही मुसलमानों के मतविषै अन्यथा निरूपण कर है। जैसे वे ब्रह्मको सर्वव्यापी, एक, निरंजन, सर्वका कर्ता-हर्ता माने है तैसे ए खुदाको मान है। बहुरि जैसे ये अवतार भए माने है तैसे ए पैगम्बर भए माने हैं। जैसे वे पुण्य - पापका लेखा लेना, यथायोग्य दण्डादिक देना ठहरावै है तैसे ये खुदाकै ठहरावै है। बहुरि जैसे वे गऊ आदिको पूज्य कहे हैं तैसे ए सूअर आदिको कहै हैं, सर्व तिर्यच आदिक हैं। बहुरि जैसे वे ईश्वर की भक्ति मुक्ति कहै है तैसे ए खुदा की भक्तित कहै हैं। बहुरि जैसे वे कहीं दया पोष, कहीं हिंसा पोषै, तैसे ए भी कहीं मेहर करनी पोषे कहीं कतल करना पोषै। बहुरि जैसे वे कहीं तपश्चरण करन पोषै कहीं विषयासेवन पोषे तैसे ही ए भी पोषे हैं। बहुरि जैसे वे कहीं मांस मदिरा शिकार
आदि का निषेध करै, कहीं उत्तम पुरुषोंकरि तिनिका अंगीकार करना बतावै हैं तैसे ए भी तिनिका निषेध | वा अंगीकार करना बतावै है। ऐसे अनेक प्रकारकरि समानता पाइए है। यद्यपि नामादिल और और हैं तथापि प्रयोजनभूत अर्थकी एकता पाइए है। बहुरि ईश्वर खुदा आदि मूल श्रद्धानकी तो एकता है अर उतर श्रद्धानविष घने ही विशेष हैं। तहाँ उनतें भी ए विपरीतरूप विषयकषायके पोषक, हिंसादिपापके पोषक, प्रत्यादि प्रमाणत विरुद्ध निरूपण करे हैं। तातें मुसलमान का मत महाविपरीतरूप जानना। या प्रकार इस क्षेत्रकालविर्ष जिनि मतनिकी प्रचुर प्रवृत्ति है ताका मिथ्यापना प्रगट किया।
इहाँ कोऊ कहै जो र मत मिथ्या है तो बड़े राजादिक वा बड़े विद्यावान इनि मतनिविर्ष कैसे प्रवत
ताका समाधान-जीवनिकै मिथ्यावासना अनादित है सो इनिविष मिथ्यात्व ही का पोषण है। बहुरि जीवनिकै विषयकषायरूप कार्यनिकी चाह वर्ते है सो इनि विष विषयकषाय रूप कार्य हीका पोषण है। बहुरि राजादिकनिका वा विद्यावानोका ऐसे धर्मविष विषयकषायरूप प्रयोजनसिद्धि हो है। बहुरि जीव तो लोकनिंद्यपना को भी उलंघि, पाप भी जानि जिन कार्यनिको किया चाहै तिनि कार्यनिको करते थर्म बतावै तो ऐसे धर्मविषै कौन न लागे। तातै इनि थर्मनिकी विशेषप्रवृत्ति है। बहुरि कदाचित् सू कहेगा-इनि धनिविष विरागता दया इत्यादि भी तो कहे हैं, सो जैसे झोल बिना खोटा द्रव्य चालै नाहीं, तैसे साँच मिलाए बिना झूठ थालै नाहीं परन्तु सर्वकै हित प्रयोजन विष विषयकषायका ही पोषण किया है। जैसे गीलाविषै उपदेश देय राडि(युद्ध)