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पाँचवाँ अधिकार ६६
सो सांच अर आप वस्त्रको अंगीकार कर पहरें, अपनी शीतादिक वेदना मिटाय सुखी होय, तहाँ जो अपना कर्त्तव्य माने नाहीं सो कैसे संभवे । बहुरि कुशील सेवना, अभक्ष्य भखणा इत्यादि कार्य तो परिणाम मिले बिना होते ही नाहीं । तहाँ अपना कर्त्तव्य कैसे न मानिए तातें जो काम क्रोधादिका अभाव ही भया होय तो तहाँ किसी क्रियानिविषै प्रवृत्ति सम्भवै ही नाहीं । अर जो कामक्रोधादि पाइए है तो जैसे ए भाव थोरे होय तैसे प्रवृत्ति करनी। स्वच्छन्द होय इनिको बधावना युक्त नाहीं ।
पवनादि साधन द्वारा ज्ञानी होने का प्रतिषेध
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बहुरि केई जीव पवनादिकका साधनकर आपको ज्ञानी माने है तहाँ इडा पिंगला सुषुम्णारूप नासिकाद्वारकरि पवन निकसै, तहाँ वर्णादिक भेदनितें पवन ही को पृथ्वी तत्त्वादिकरूप कल्पना करे है । ताका विज्ञानकरि किछू साधन निमित्तका ज्ञान होय तातैं जगत् को इष्ट अनिष्ट बतावै, आप महंत कहावै सो यह तो लौकिक कार्य है, किछू मोक्षमार्ग नाहीं । जीवनिको इष्ट अनिष्ट बताय उनकै राग-द्वेष बधावै अर अपने मान लोभादिक निपजावै, यामें कहा सिद्धि है। बहुरि प्राणायामादिका साधन करें, पवन को चढ़ाय समाधि लगाई कहै, सो यहु तो जैसे नट साधनतें हस्तादिक करि क्रिया करै तैसे यहाँ भी साधनतै पवनकरि किया करी । हस्तादिक अर पवन ए तो शरीर ही के अंग हैं। इनिके साधनतै आत्महित कैसे सधै ? बहुरि तू कहेगा - तहाँ मनका विकल्प मिटै है, सुख उपजै है, यम के वशीभूतपना न हो है सो यहु मिथ्या है। जैसे निद्राविषै चेतना की प्रवृत्ति मिटै है तैसे पंवन साधनतें यहाँ चेतना की प्रवृत्ति मिटै है। तहाँ मन को रोकि राख्या है, किछू वासना तो मिटी नाहीं । तातैं मनका विकल्प मिट्या न कहिए अर चेतना बिना सुख कीन भोगवे है तातें सुख उपज्या न कहिए। अर इस साधनवाले तो इस क्षेत्रविषे भए हैं तिन विषे कोई अमर दीसता नाहीं । अग्नि लगाए ताका भी मरण होता दीसे है तार्ते यमके वशीभूत नाहीं, यहु झूठी कल्पना है। बहुरि जहाँ साधन विषै किछू चेतना रहै अर तहाँ साधन शब्द सुनै ताको अनहद नाद बतावै । सो जैसे वीणादिक के शब्द सुननेते सुख मानना तैसे तिसके सुननेते सुख मानना है। इहां तो विषयपोषण भया, परमार्थतो किछू नाहीं । बहुरि पवन का निकसने पैठने विषै "सोहं" ऐसे शब्दकी कल्पनाकरि ताको 'अजपा जाप' कहे है सो जैसे तीतरके शब्दविषै 'तू ही' शब्दकी कल्पना करे है, किछू तीतर अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । तैसे यहां 'सोऽहं' शब्द की कल्पना है, किछू पवन अर्थ अवधारि ऐसा शब्द कहता नाहीं । बहुरि शब्द के जपने सुनने ही तैं तो किछु फलप्राप्ति नाहीं, अर्थ अवधारे फलप्राप्ति हो है । सो 'सोऽहं ' शब्द का अर्थ यहु है 'सो हूँ हूँ' यहाँ ऐसी अपेक्षा चाहिए है, 'सो' कौन? तब ताका निर्णय किया चाहिए जांतें तत् शब्दकै अर यत् शब्दकै नित्य सम्बन्ध है । तातै वस्तुका निर्णयकरि ताविषै अहंबुद्धि धारनेविषै 'सोऽहं' शब्द बनै। तहाँ भी आपको आप अनुभवै, तहाँ तो 'सोऽहं' शब्द सम्भवे नाहीं । परको अपने स्वरूप बतावने विषै 'सोऽ' शब्द सम्भये है। जैसे पुरुष आपको आप जानै तहाँ 'सो हूं छू' ऐसा काहेको विचारै । कोई अन्य जीव आपको न पहचानता होय अर कोई अपना लक्षण न पहचानता होय, तब वाको कहिए 'जो ऐसा है सो मैं हूँ' तैसे ही यहां जानना । बहुरि केई ललाट भौंहारा नासिका के अग्र के देखने का साधनकरि त्रिकुटी आदि का ध्यान मया कहि परमार्थ माने सोनेत्र की पूतरी फिरे मूर्तीक वस्तु देखी,