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-मोक्षमार्ग कापाक-४
ब्रह्मस्वरूप कहै है। एक तो महादेवको ब्रह्मस्वरूप माने हैं ताको योगी कहे हैं, सो योग किस अर्थि गह्या। बहुरि मृगछाला भस्मी धारै है सो किस अर्थेि धारी है। बहुरि रुण्डमाला पहरै है सो हाड़का छीवना भी निध है ताको गले में किस अर्थि धारै है। सर्पादि सहित है सो यामें कौन बड़ाई है। आक धतूरा खाय है सो यामें कौन भलाई है। त्रिशूलादि राखै है सो कौनका भय है। बहुरि पार्वती संग लिए है सो योगी होय स्त्री राखै सो ऐसा विपरीतपना काहेको किया। कामासक्त था तो घर ही में रह्या होता बहुरि वानै नाना प्रकार विपरीत चेष्टा कीन्ही ताका प्रयोजन तो किछू मासे नाही। बाउले का सा कर्त्तव्य भासै ताको ब्रह्मस्वरूप कहै।
बहुरि कबहूँ कृष्ण को याका सेवक कहै, कबहूँ याको कृष्ण का सेवक कहै । कबहूँ दोऊनिको एक ही कहै, किछू ठिकाना नाही। बहुरि सूर्यादिकको ब्रह्मका स्वरूप कहै। बहुरि ऐसा कहै जो विष्णु कह्या सो धातुनिविषै सुवर्ण, वृक्षनिविष कल्पवृक्ष, जूया विषै झूठ इत्यादि में मैं ही हूँ सो किछू पूर्वापर विचार नाहीं। कोई एक अंगकरि केई संसारी जाको महंत मानै ताहीको ब्रह्मका स्वरूप कहें । सो ब्रह्म सर्वव्यापी है तो ऐसा विशेष काहेको किया। अर सूर्यादिविष वा सुवर्णादिविषै ही ब्रह्म है तो सूर्य उजारा कर है, सुवर्ण धन है इत्यादि गुणनिकरि ब्रह्म मान्या सो सूर्यवत् दीपादिक भी उजाला करै है, सुवर्णवत रूपा लोहा आदि भी धन हैं, इत्यादि गुण अन्य पदार्थनिविषै भी हैं तिनको भी ब्रह्म मानो। बड़ा छोटा मानो परन्तु जाति तो एक भई। सो झूठी महंतता ठहरावने के अर्थि अनेक प्रकार युक्ति बनावै है।
बहुरि अनेक ज्वालामालिनी आदि देवी तिनको माया का स्वरूप कहि हिंसादिक पाप उफ्नाय पूजना ठहराव है सो माया तो निध है साका पूजना कैसे सम्भवै? अर हिंसादिक करना कैसे भला होय? बहुरि गऊ सर्प आदि पशु अभक्ष्य भक्षणादिसहित तिनको पूज्य कहै। अग्नि पवन जलादिको देव ठहराय पूज्य कहै। वृक्षादिकको युक्ति बनाय पूज्य कहै। बहुत कहा कहिए, पुरुषलिंगीनाम सहित जे होय तिनिविषै ब्रह्म की कल्पना करै अर स्त्रीलिंगी नाम सहित होय तिनि विषै माया की कल्पनाकार अनेक वस्तुनिका पूजन उहराये है। इनके पूजे कहा होगा सो किछू विचार नाहीं। झूठे लौकिक प्रयोजन के कारण ठहराय जगत् को भ्रमाव है। बहुरि वे कह है- विधाता शरीर को पड़े है, बहुरि यम मार है, मरते समय यम के दूत लेने आवै हैं, मूए पीछे मार्गविष बहुत काल लागे है, बहुरि तहां पुण्य-पाप का लेखा करे है, बहुरि तहाँ दंडादिक देहै। सो ए कल्पित झूठी युक्ति है। जीव तो समय-समय अनन्ते उपजै मर तिनका युगपत् ऐसे होना कैसे सम्मवे? अर ऐसे मानने का कोई कारण भी भासे नाहीं।
पात्रनिषेध बहुरि मूए पीछे श्रादिक करे वाका भला होना कह सो जीवता तो काहूके पुण्य - पापकार कोई सुखी दुःखी होता वीस नाहीं, मूए पीछे कसे होई। ए युक्ति मनुष्यनिको प्रमाय अपने लोभ साधने के अर्थि बनाई है। कीड़ी पतंग सिंहादिक जीव भी तो उपजै मरे हैं, उनको प्रलय के जीव ठहरावे। सो जैसे मनुष्यादिक के जन्म मरण होते देखिए है, तैसे ही उनके होते देखिए है। चूंठी कल्पना किए कहा सिद्धि है? बहुरि वे शास्त्रनिवि कथादिक निरूप हैं तहाँ विचारकिए विरुद्ध भासे है।