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चौथा अधिकार - ७५
हैं, तथा चेतन नहीं हैं ये जड़ हैं तो भी चेतन आत्मा को रंक करके चोर के समान उसे बाँधते हैं तथा सातों नरकों के दारुण दुःख प्रदान करते हैं ।
इस प्रकार श्री रामचन्द्र जो ने तो कर्म कथंचित् दुःख देते हैं, कथंचित् नहीं देते, यह पूरा ही स्याद्वाद पय ५ व ११ में भर दिया है। और हम ऐसे हैं कि उस स्याद्वादी प्रकरण में से मात्र एक निश्चय पक्ष को ले लेते हैं तथा व्यवहार पक्ष का अपलाप कर देते हैं। इस पर पं. टोडरमल जी कहते हैं- जीव अपने अभिप्राय तें निश्चय नम की मुख्यता करि
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जो कथन किया होय. तर या दृष्टिको थारे है। (गो. भा. प्र. अधि. ७ पृ. २६१३
यह कथन करोड़ों ग्रन्थोंका सार है। श्रीमद्रराजचन्द्र कहते हैं कि- “सर्व जीव हितकारी ज्ञानी पुरुष की वाणी को किसी . भी एकान्त दृष्टि को ग्रहण करके अहितकारी अर्थ में न ले जाएँ, यह बात निरन्तर स्मरण रखने योग्य है। (श्रीमद् भाग २ पृ. ६८ । प्रथम संस्करण, १६७४ ई.) यदि व्यवहार गलत हो तो "हमें अग्नि जलाती है" यह वाक्य व्यवहारनय का होने के कारण गलत ही ठहरा। कृपया अग्नि को स्पर्श करके देखें कि व्यवहार का कथन सत्य है या असत्य ? हे सत्पुरुषो ! महावीर के "व्यवहारनय" का अपलाप करना योग्य नहीं इसलिए व्यवहार का कथन होते हुए भी यह कथन उचित ही है कि द्रव्य कर्म दुःख देते हैं। कहा भी है
कर्म महारिपु जोर, एक न कान करैजी ।
मनमाने दुःख देहिं काहूसों नाहिं डरे जी ।। ३ ।। कबहूँ इतर निगोद कबहूँ नरक दिखाये ।
सुरनर पशु गति माहिं बहुविधि नाच नचावै ॥ ४ ॥
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मैं तो एक अनाथ ये मिलि दुष्ट घनेरे ।
कियो बहुत बेहाल सुनियो साहिब मेरे ।।
ज्ञानमहानिधि लूटि रंक निबल करि डार्यो ।
इनही तुम मुझे माँहि है जिन अन्तर पाइयो । ८ । भूधरास श्री आदिनाथ पूजा में भी कहा है...
अष्ट कर्म, मैं एकलो, यह दुष्ट (कर्म) महादुःख देत हो । कबहूँ इतर निगोद में मोकू, पटकत करत अचेत हो । म्हारी दीनतणी सुनो विनती ।
ये सब कथन मिथ्या अपलाप नहीं हैं।
यदि यह कहा जाए कि जड़कर्म में जीव को चेतनको पीड़ित करने की शक्ति कैसे मानी जा सकती है? तो उत्तर इस प्रकार है- वैज्ञानिक लोहे के एक टुकड़े के चारों और धातु का एक तार लपेट कर उस तार में विद्युत् प्रवाह छोड़ते हैं। ऐसा करने पर तत्काल वह लोहे का टुकड़ा चुम्बक बन जाता है। वैज्ञानिक इस यन्त्र से अनेक कार्य ले लेते हैं। परन्तु जैसे ही इस तार में विद्युत प्रवाह बन्द कर देते हैं, उसी क्षण उस लोहे के चुम्बक की शक्ति समाप्त हो जाती है और वह लोहे का टुकड़ा केवल लोहा ही रह जाता है। फिर वह अपेक्षित कार्य नहीं कर पाता। इसी प्रकार जब हमारी आत्मा में रागद्वेष की भावनाएँ उठती हैं तो इन भावनाओं के फलस्वरूप आसपास की कार्मणवर्गणाएँ आत्मा की ओर आकृष्ट होती हैं और उन कार्मण वर्गणाओं में, आत्मा की भावनाओं के अनुसार सुख-दुःख देने की शक्ति उत्पन्न हो जाती है। (सच्चे सुख का मार्ग पृ. १६५ तथा जयथवल १ प्रस्तावना पृ. ७५ तृतीय अनु. द्वितीय संस्करण) अमितगति आचार्य कहते हैं कि विष तथा मदिरा अचेतन पदार्थ हैं किन्तु उनमें विकार करने की शक्ति पाई जाती है। फिर ऐसा कौन चतुर पुरुष होगा जो अचेतन कर्मों में कार्य करने की शक्ति को न माने ?
विलोकमाना स्वयमेव शक्ति विकारहेतुं विषमघजाताम् ।
अचेतन कर्म करोति कार्य, कथं वदन्तीति कथं विदग्धाः 11 ७ । ६१ ।।