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मोक्षमार्ग प्रकाशक-८२
गमन करै। बहुरि उनको गमन करते वे सूक्ष्म अंग अन्य स्थूल अंगनित जुरे रहैं, ते भी गमन करै हैं सो ऐसे सर्व लोक अस्थिर होइ जाय। जैसे शरीर का एक अंग खींचे सर्व अंग खींचे जाय, तैसे एक पदार्थ को गमनादि करते सर्व पदार्थनिका गमनादि होय सो भारी नाहीं। बहुरि जो द्वितीय पक्ष ग्रहेगा तो अंग टूटनेते भिन्नपना होय ही जाय तब एकत्वएना से रहा? नाते सर्चगेक के एकत्व को ब्रह्म मानना कैसे सम्भवै? बहुरि एक प्रकार यहु है जो पहले एक था, पीछे अनेक भया बहुरि एक होय जाय तातै एक है। जैसे जल एक था सो बासणनिमें जुदा-जुदा भया बहुरि मिले तब एक होय वा जैसे सोना का गदा' एक था सो कंकण कुंडलादिरूप भया, बहुरि मिलकर सोनाका गदा होय जाय । तैसे ब्रह्म एक था पीछे अनेकरूप भया बहुरि एक होयगा तातै एक ही है। इस प्रकार एकत्व माने है तो जब अनेक रूपमया तब जुत्या रह्या कि भिन्न भया। जो जुस्या रह्या कहेगा तो पूर्वोक्त दोष आवेगा। भिन्न भया कहेगा तो तिस काल तो एकत्व न रह्या । बहुरि जल सुवर्णादिकको भिन्न भए भी एक कहिए है सो तो एक जाति अपेक्षा कहिए है सो सर्व पदार्थनि की एक जाति मासे नाहीं। कोऊ चेतन है, कोऊ अचेतन है इत्यादि अनेकरूप है तिनकी एक जाति कैसे कहिए? बहुरि पहिले एक था पीछे भिन्न भया माने है तो जैसे एक पाषाण फूटि टुकड़े होय जाय है तैसे ब्रह्म के खंड होय गए, बहुरि तिनका एकट्ठा होना मान है तो तहाँ तिनका स्वरूप भिन्न रहै है कि एक होइ जाय है। जो भिन्न रहै है तो तहाँ अपने-अपने स्वरूपकरि भिन्न ही है अर एक होइ जाय है तो जड़ भी देतन होइ जाय वा चेतन जड़ होइ जाय। तहाँ अनेक वस्तुनिका एक वस्तु भया तब काहू कालविषै अनेक वस्तु, काहू कालविषै एक वस्तु ऐसा कहना बनै। अनादि अनन्त एक ब्रह्म है ऐसा कहना बनै नाहीं । बहुरि जो कहेगा लोकरचना होते वा न होतें ब्रह्म जैसा का तैसा ही रहै है, तातें ब्रह्म अनादि अनन्त है। सो हम पूछे हैं, लोकवि पृथिवी जलादिक देखिए हैं ते जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं कि ब्रह्म ही इन स्वरूप भया है? जो जुदे नवीन उत्पन्न भए हैं तो ए न्यारे भए, ब्रह्म न्यारा रहा, सर्वव्यापी अद्वैतब्रह्म न ठहरया। बहुरि जो ब्रह्म ही इन स्वरूप भया तो कदाचित् लोक भया, कदाचित् ब्रह्म भया तो जैसा का तैसा कैसे रह्या? बहुरि वह कहै है जो सब ही ब्रह्म तो लोकस्वरूप न हो है, वाका कोई अंश हो है। ताको कहिए है-जैसे समुद्रका एक विन्दु विषरूप भया तहाँ स्थूलदृष्टिकरि तो गम्य नाहीं। परन्तु सूक्ष्मदृष्टि दिए तो एक बिन्दु अपेक्षा समुद्रकै अन्यथापना भया तैसे ब्रह्मका एक अंश भिन्न होय लोकरूप भया तहाँ स्थूल विचारकरि तो किछू गम्य नाहीं परन्तु सूक्ष्मविचार किए तो एक अंश अपेक्षा ब्रह्मकै अन्यथापना भया । यह अन्यथापना और तो काहूकै भया नाहीं । ऐसे सर्वरूप ब्रह्म को मानना भ्रम ही है।
बहुरि एक प्रकार यहु है जैसे आकाश सर्वव्यापी एक है तैसे ब्रह्म सर्वव्यापी एक है। जो इस प्रकार मान है तो आकाशक्त बड़ा ब्रह्मको मानि वा जहाँ घटपटादिक हैं तहाँ जैसे आकाश है तैसे तहाँ ब्रम भी है ऐसा 'मी मानि । परन्तु जैसे घटपटादिकको अर आकाश को एक ही कहिए तो कैसे बने? तैसे लोकको अर ब्रह्म को एक मानना कैसे सम्भवै? बहुरि आकाश का तो लक्षण सर्वत्र मासै है तातै ताका तो सर्वत्र सदभाव मानिए है। ब्रह्म का तो लक्षण सर्वत्र भासता नाही नातें ताका सर्वत्र सद्भाव कैसे मानिए? ऐसे इस
म वा पामा।