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मोक्षमार्ग प्रकाशक - ८४
समवायसम्बन्ध है तो जैसे अग्नि का उष्णत्व स्वभाव है तैसे ब्रह्मका मायास्वभाव ही भया । जो ब्रह्म का स्वभाव है ताका निषेध करना कैसे सम्भवै? यहु तो उत्तम भई ।
बहुरि ये कहे हैं कि ब्रह्म तो चैतन्य है, माया जड़ है सो समवाय संबंधविषे ऐसे दोय स्वभाव सम्भयै नाहीं । जैसे प्रकाश अर अन्धकार एकत्र कैसे सम्भवे ? बहुरि वह कहे है- मायाकरि ब्रह्म आप तो भ्रमरूप होता नाहीं, ताकी माया करि जीव भ्रमरूप हो है। ताको कहिए है- जैसे कपटी अपने कपट को आपजाने सो आप भ्रमरूप न होय, वाके कपटकरि अन्य भ्रम रूप होय जाय । तहाँ कपटी तो वाही को कहिए जाने कपट किया. ताके काटकर अन्य भ्रमरूप भए तिनकों तो कपटी न कहिए। तैसे ब्रह्म अपनी मायाको आप जानै सो आप तो भ्रमरूप न होय, वाकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप होय हैं। तहाँ मायायी तो ब्रह्म ही को कहिए, ताकी मायाकरि अन्य जीव भ्रमरूप भए तिनको मायावी काहेको कहिए है।
बहुरि पूछिए है, वे जीव ब्रह्म तें एक हैं कि न्यारे हैं। जो एक हैं तो जैसे कोऊ आपही अपने अंगनिको पीड़ा उपजावै तो ताको बाउला कहिए है तैसे ब्रह्म आप ही आपतै भिन्न नाहीं ऐसे अन्य जीव तिनको मायाकरि दुःखी करे है सो कैसे बने? बहुरि जो न्यारे हैं तो जैसे कोऊ भूत बिना ही प्रयोजन औरनिको भ्रम उपजाय पीड़ा उपजावै तैसे ब्रह्म बिना ही प्रयोजन अन्य जीवनि को माया उपजाय पीड़ा उपजावै सो भी बने नाहीं। ऐसे माया ब्रह्म की कहिए है सो कैसे सम्भवे ?
जीवों की चेतना को ब्रह्म की चेतना मानने का निराकरण
बहुरि वे कहें हैं, माया होतें लोक निपज्या तहाँ जीवनिकै जो चेतना है सो तो ब्रह्मस्वरूप है। शरीरादिक माया है, तहाँ जैसे जुदे जुदे बहुत पात्रनिविषै जल भरया है; तिन सबनिविषै चन्द्रमाका प्रतिबिम्ब जुदा-जुदा पड़े है, चन्द्रमा एक है। तैसे जुदे जुदे बहुत शरीरनिविषे ब्रह्म का चैतन्य प्रकाश जुदा-जुदा पाइए है । ब्रह्म एक है । '
तार्तें जीवनिकै चेतना है सो ब्रह्म की है। सो ऐसा कहना भी भ्रम ही है जातें शरीर जड़ है या विषै ब्रह्म का प्रतिबिंब चेतना भई तो घटपटादि जड़ है तिनविषै ब्रह्म का प्रतिबिंब क्यों न पड्या अर चेतना क्यों न भई ? बहुरि वह कहे है शरीर को तो चेतन नाहीं करे है, जीवको करे है। तब वाको पूछिए है कि जीवका स्वरूप चेतन है कि अचेतन है। जो चेतन है तो चेतन का चेतन कहा करेगा। अचेतन है
१. कपिल, आसुरि पंचशिख, पतंजलि आदि आचार्य, पुरुष की अनेकता का निरूपण करते हैं जबकि हरिहर, हिरण्यगर्भ, व्यास प्रभृति वेदवादी आचार्य सभी व्यक्तियों में एक ही आत्मा के अस्तित्व का प्रतिपादन करते हैं। उनका कथन है कि प्राणिमात्र में एक आत्मा वैसे ही प्रतिष्ठित है जैसे कि एक ही चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब अनेक जलाशयों में अनेक दिखता
एक एव हि भूतात्मा भूते- भूते व्यवस्थितः । एकथा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥
- ब्रह्ममिन्दुपनिषद् १०२