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पांचवा अधिकार-८३
प्रकारकरि भी सर्वरूप एक ब्रह्म नाहीं है। ऐसे ही विचारकर किसी भी प्रकारकरि एक ब्रह्म सम्भवै नाहीं। सर्व पदार्थ भिन्न-भिन्न ही भारी हैं।
इहां प्रतिवादो कहे हैं. जो सर्व एक ही है परन्तु तुम्हारे भ्रम है तात तुमको एक मासै नाहीं । बहुरि तुम युक्ति कही सो ब्रह्म का स्वरूप युक्तिगभ्य नाहीं, वचन अगोचर है। एक भी है, अनेक भी है। जुदा भी है, मिल्या भी है। वाकी महिमा ऐसी ही है । ताको कहिए है-जो प्रत्यक्ष तुझको वा हमको दा सबनिको भारी, ताको तो तू भ्रम कहै अर युक्तिकरि अनुमान करिए सो तू कहे कि सांचा स्वरूप युक्तिगम्य है ही नाहीं। बहुरि वह कहै, सांचास्वरूप वचन अगोचर है तो वचन बिना कैसे निर्णय करे? बहुरि कहै-एक भी है अनेक भी है; जुदा भी है, मिल्या भी है सो तिनकी अपेक्षा बताद नाही, बाउलेकीसी नाई ऐसे भी है, ऐसे भी है ऐसा कहि याकी महिमा बतावै । सो जहाँ न्याय न होय है तहां झूठे ऐसे ही वाचालपना करै है सो करो, न्याय तो जैसे सांच है तैसे ही होयगा ।
__ब्रह्म की इच्छा से जगत के सृष्टि-कर्तृत्व का निराकरण
बहुरि अब तिस ब्रह्मको लोक का कर्ता माने है ताको मिथ्या दिखाइए है-प्रथम तो ऐसा मानै है जो ब्रह्मकै ऐसी इच्छा भई कि "एको ऽहं बहुस्याम्” कहिए मैं एक हूँ सो बहुत होस्तूं। तहाँ पूछिए है-पूर्व अवस्था में दुःखी होय तब अन्य अवस्था को चाहै । सो ब्रह्म एकरूप अवस्था बहुत रूप होने की इच्छा करी सो तिस एक रूप अवस्थाविषै कहा दुःख था? तब वह कहै है जो दुःख तो न था, ऐसा ही कौतूहल उपज्या। ताको कहिए है- जो पूर्वे थोरा सुखी होय अर कौतूहल किए घना सुखी होय सो कौतूहल करना विचारै। सो ब्रह्मकै एक अवस्थाः बहुत अवस्थारूप भए घना सुख होना कैसे सम्भवै? बहुरि जो पूर्वे ही सम्पूर्ण सुखी होय तो अवस्था काहेको पलटै। प्रयोजन बिना तो कोई किछू कर्तव्य करै नाहीं । बहुरि पूर्वे भी सुखी होगा, इच्छा अनुसारि कार्य भए भी सुखी होगा परन्तु इच्छा मई तिस काल तो दुःखी होय । तब वह कहै है, ब्रह्मकै जिस काल इच्छा हो है तिस काल ही कार्य हो है ता दुःखी न हो है। तहाँ कहिएस्थूलकाल की अपेक्षा तो ऐसे मानो परन्तु सूक्ष्मकाल की अपेक्षा तो इच्छा का अर कार्य का होना युगपत् सम्भवे नाहीं। इच्छा तो तब ही होय जब कार्य न होय । कार्य होय तब इच्छा न रहै, तातै सूक्ष्मकाल मात्र इच्छा रही तब तो दुःखी भया होगा। जातें इच्छा है सो ही दुःख है, और कोई दुःख का स्वरूप है नाहीं। तातें ब्रह्मकै इच्छा कैसे बनै?
ब्रह्म की माया का निराकरण बहुरि वे कहै हैं, इच्छा होते ब्रह्म की माया प्रगट भई सो ब्रह्मके माया मई तब ब्रह्म भी मायावी भया, शुद्धस्वरूप कैसे रहा? बहुरि ब्रह्मकै अर मायाकै दंडी-दंडवत संयोग सम्बन्ध है कि अग्नि-उष्णवत् समवायसम्बन्ध है। जो संयोगसम्बन्ध है तो ब्रह्म भिन्न है, माया भिन्न है, जद्वैत ब्रह्म कैसे रह्या? बहुरि जैसे दंडी दंडको उपकारी जानि ग्रहै है तैसे ब्रह्म मया को उपकारी जानै है तो ग्रहै है, नाहीं तो काहेको ग्रहै? बहुरि जिस माया को ब्रह्म ग्रहै ताका निषेध करना कैसे सम्भवै वह तो उपादेय मई। बहुरि जो