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पाँचवाँ अधिकार-१६
सो किस अर्थि बनाए । ए तो रमणीक नाही, भक्ति करते नाहीं। सर्व प्रकार अनिष्ट ही हैं। बहुरि दरिद्री दुःखी नारकीनिको देखे आपको जुगुप्सा ग्लानि आदि दुःख ही उपजे ऐसे अनिष्ट काहेको बनाए। तहाँ वह कहै है-कि जीव अपने पापकरि लट कीड़ी दरिद्री नारकी आदि पर्याय भुगते हैं। याको पूछिए है कि पीछे तो पापहीका फलत ए पर्याय भए कहो परन्तु पहिले लोकरचना करते ही इनको बनाए सो किस अर्थि बनाए। बहुरि पीछे जीव पापरूप परिणए सो कैसे परिणए। जो आपही परिणए कहोगे तो जानिए है ब्रह्मा पहले तो निपजाए पीछे वे याकै आधीन न रहे। इस कारण ब्रह्माको दुःख ही भया। बहुरि जो कहोगे-ब्रह्माके परिणमाए परिणमै हैं तो तिनको पापरूप काहेको परिणमाए। जीव तो आपके निपजाए थे उनका बुरा किस अर्थि किया। तातें ऐसे भी न बने । बहुरि अजीवनिविषे सुवर्ण सुगन्धादि सहित वस्तु बनाए सो तो रमणेके अर्थि बनाए, कुयर्ण दुर्गन्धादिसहित वस्तु दुःखदायक बनाए सो किस अर्थि बनाए। इनका दर्शनादिकरि ब्रह्माकै किछू सुख तो नाहीं उपजता होगा। बहुरि तू कहेगा, पापी जीवनिको दुःख देने के अर्थि बनाए। तो आपहीके निपजाए जीव तिनस्यों ऐसी दुष्टता काहे को करी जो तिनको दुःखदायक सामग्री पहले ही बनाई। बहुरि धूलि पर्वतापिता बलु केतीया ऐसी है गीत मी नाही जर दुःखदायक भी नाही, तिनको किस अर्थि बनाए । स्वयमेव तो जैसे तैसे ही होय अर बनावनहारा तो जो बनावै सो प्रयोजन लिए ही बनावै। ताते ब्रह्मा सृष्टिका कर्ता कैसे कहिए है?
बहुरि विष्णुको लोकका रक्षक कहै है। रक्षक होय सो तो दोय ही कार्य करै। एक तो दुःख उपजावने के कारण न होने दे अर एक विनशने के कारण न होने दे। सो तो लोकविषै दुःखही के उपजनेके कारण जहाँ-तहाँ देखिए हैं अर तिनकार जीवनिको दुःख ही देखिए है। क्षुधा तृषादिक लगि रहे हैं। शीत उष्णादिक कार दुःख हो है। जीय परस्पर दुःख उपजावै है, शस्त्रादि दुःख के कारण बनि रहे हैं। बहुरि विनशने के कारण अनेक बन रहे है। जीवनिके रोगादिक वा अग्नि विष शस्त्रादिक पर्यायके नाशके कारण देखिए है अर अजीवनिकै भी परस्पर विनशने के कारण देखिए हैं। सो ऐसे दोय प्रकारहीकी रक्षा तो कीन्हीं नाहीं तो विष्णु रक्षक होय कहा किया। वह कहै है- विष्णु रक्षक ही है। देखो क्षुथा तृषादिकके अर्थि अन्न जलादिक किए हैं। कीड़ी को कण कुञ्जरको मण पहुँचावै है संकटमें सहाय कर है। मरणके कारण बने टीटोडी' की सी नाई उबारै है। इत्यादि प्रकार करि विष्णु रक्षा करे है। याको कहिए है- ऐसे है तो जहाँ जीवनिकै रुघातृषादिक बहुत पीड़ें अर अन्न - जलादिक मिले नाही, संकट पड़े सहाय न होय, किंवित् कारण पाइ मरण होय जाय, तहाँ विष्णु की शक्ति हीन भई कि. वाको ज्ञान ही न भया । लोकविषै बहुत तो ऐसे ही दुःखी हो हैं मरण पादै हैं, विष्णु रक्षा काहे को न करी। तब वह कहै है, यहु जीवनिके अपने कर्तव्य का फल है। तब वाको कहिए है कि जैसे शक्तिहीन लोभी झुठा वैद्य काहूकै किछू भला होइ ताको तो कहै, मेरा किया भया है अर जहाँ बुरा होय, मरण होय तब क याका ऐसा ही होनहार था। तैसे ही तू कहै है कि भला भया तहाँ तो विष्णु का किया भया अर बुरा भया सो याका कर्तव्य का फल भया। ,, एक प्रकार का पक्षी जो एक समुद्र के किनारे रहता था। उसके अंडे समुद्र बहा ले जाता था। सो उसने दुःखी होकर
गरुड़ पक्षी की मार्फत विष्णु से अर्ज की तो उन्होंने समुद्र से अंडे दिलग दिये। पुराणों में ऐसी कया है।