________________
पाँचवाँ अधिकार - 9
सर्वव्यापी अद्वैत ब्रह्म का निराकरण
अद्वैत ब्रह्म' को सर्वव्यापी सर्वका कर्त्ता मानै सो कोई नाहीं । प्रथम वाको सर्वव्यापी मानै सो सर्व पदार्थ तो न्यारे न्यारे प्रत्यक्ष हैं वा तिनके स्वभाव न्यारे न्यारे देखिए हैं, इनको एक कैसे मानिए हैं? इनका मानना तो इनप्रकारनि करि है-एक प्रकार तो यहु है जो सर्व न्यारे-न्यारे है तिनके समुदायकी कल्पनाकरि ताका किछु नाम थरीए । जैसे घोटक हस्ती इत्यादि भिन्न-भिन्न हैं तिनके समुदाय का नाम सेना है, तिनतें जुदा कोई सेना वस्तु नाहीं । सो इस प्रकारकरि सर्वपदार्थनिका जो नाम ब्रह्म है तो ब्रह्म कोई जुदा वस्तु तो न ठहराया, कल्पना मात्र ही ठहत्या । बहुरि एक प्रकार यहु है जो व्यक्ति अपेक्षा तो न्यारे न्यारे है तिनको जाति अपेक्षा कल्पना करि एक कहिए है। जैसे सौ घोटक (घोड़ा) हैं ते व्यक्ति अपेक्षा तो जुदे जुदे सौ ही हैं तिनके आकारादिककी समानता देखिए जाति कहैं, सो वह जाति तिनतें जुदी ही तो कोई है नाहीं । सो इस प्रकार करि जो सबानकी कोई एक जाति अपेक्षा एक ब्रह्म मानिए है तो ब्रह्म जुदा तो कोई न ठहरथा, इहाँ भी कल्पना मात्र ही ठहराया। बहुरि एक प्रकार यहु है जो पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं तिनके मिलाप एक स्कंध होय ताकों एक कहिए। जैसे जलके परमाणु न्यारे-न्यारे हैं तिनका मिलाप भए समुद्रादि कहिए अथवा जैसे पृथ्वी के परमाणूनिका मिलाप भए घट आदि कहिए सो इहाँ समुद्रादि वा घटादिक हैं ते तिन परमाणूनि भिन्न कोई जुदा तो वस्तु नाहीं । सो इस प्रकार करि जो सर्व पदार्थ न्यारे-न्यारे हैं परन्तु कदाचित् मिलि एक हो जाय हैं सो ब्रह्म है ऐसे मानिए तो इन जुदा तो कोई ब्रह्म न ठहरथा । बहुरि एक प्रकार यहु है जो अंग तो न्यारे-न्यारे हैं अर जाके अंग हैं सो अंगी एक है। जैसे नेत्र, हस्त पादादिक भिन्न-भिन्न हैं अर जाके ए हैं सो मनुष्य एक है। सो इस प्रकार करि जो सर्व पदार्थ तो अंग हैं अर जाके ए हैं सो अंगी ब्रह्म है। यह सर्व लोक विराट स्वरूप ब्रह्म का अंग है, ऐसे मानिए तो मनुष्य के हस्तपादादिक अंगनिकै परस्पर अंतराल भए तो एकत्वपना रहता नाहीं जुड़े रहै ही एक शरीर नाम पावै । सो लोकविषै तो पदार्थनिकै अंतराल परस्पर भारी है । याका एकत्वपना कैसे मानिए ? अंतराल भए भी एकत्व मानिए तो भिन्नपना कहाँ मानिएगा ।
इहाँ कोऊ कहै कि समस्त पदार्थनिकै मध्यविषे सूक्ष्मरूप ब्रह्म के अंग हैं तिनकरि सर्व जुरि रहे हैं, ताको कहिए है
जो अंग जिस अंग जुरचा है, तिनही जुरबा रहे है कि टूटि टूटि अन्य अन्य अंगनिस्यों जुरा करे है। जो प्रथम पक्ष ग्रहेगा तो सूर्यादि गमन करे है, तिनकी साथि जिन सूक्ष्म अंगनितें वह जुरै है ते भी
१. “सर्व वै खल्विदं ब्रह्म" छान्दोग्योपनिषद् प्र. ३ खं. १४ म. १ ।
"नेह नानास्ति किंचन" कठोपनिषद् अ. २ वा. ४१ मं. ११।
ब्रह्मैवेदममृतं पुरस्ताद् ब्रह्म दक्षिणतश्थोत्तरेण ।
. अधश्चोर्ध्व च प्रसृतं ब्रह्मैवेदं विश्वमिदं वरिष्ठम् ।। मुण्डको खंड २, मं. ११ ।