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तीसरा अधिकार- ५५
तिर्यंच गतिके दुःख
बहुरि तिर्यंचगतिविषै बहुत लब्धि अपर्याप्त जीव हैं तिनके तो उश्वास के अठारहवें भाग मात्र आयु है । बहुरि केई पर्याप्त भी छोटे जीव हैं सो इनको शक्ति प्रगट भासै नाहीं । तिनके दुःख एकीन्द्रयवत् जानन्ना । ज्ञानाविकका विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि बड़े पर्याप्त जीव केई सम्मूर्छन हैं, केई गर्भज हैं। तिनविषै ज्ञानादिक प्रगट हो है सो विषयनिकी इच्छाकार आकुलित हैं। बहुतको तो इष्टविषयकी प्राप्ति नाहीं है, काहूको कदाचित् किंचित् हो है । बहुरि मिथ्यात्व भावकरि अतत्त्व श्रद्धानी होय ही रहे हैं। बहुरि कषायं मुख्यपने तीव्र ही पाइए है। क्रोध मानकरि परस्पर लरे हैं भक्षण करे हैं, दुःखदेय हैं, माया लोभकरि छल करे हैं, वस्तुको चाहे हैं, हास्यादिककरि तिन कषायनिका कार्यनिविषै न प्रवर्त्ते हैं। बहुरि काहूकै कदाचितुमंदकषाय हो है परन्तु धोरे जीवनिकै हो है तातें मुख्यता नाहीं । बहुरि वेदनीयविषै मुख्य असाताका उदय है ताकरि रोग पीड़ा क्षुधा तृषा छेदन भेदन बहुत भारवहन शीत उष्ण अंगभंगादि अवस्था हो है ताकरि दुःखी होते प्रत्यक्ष देखिए है । तातें बहुत न कया है। काहूकै कदाचित् किंचित् साताका भी उदय हो है परन्तु थोरे जीवनि के हो है, मुख्यता नाहीं । बहुरि आयु अन्तर्मुहूर्त आदि कोटिवर्ष पर्यंत है। तहाँ घने जीव स्तोक आयुके धारक हो हैं । तातें जन्म-मरणका दुःख पाये हैं। बहुरि भोगभूमियों की बड़ी आयु है अर उनके साताकाभी उदय है सो वे जीव थोरे हैं। बहुरि नामकर्मकी मुख्यपने तो तिर्यंचगति आदि पापप्रकृतिनिकाही उदय है। काहूकै कदाचित् कोई पुण्य प्रकृतिनिका भी उदय हो है परन्तु धोरे जीवनिकै धोरा हो है, मुख्यता नाहीं । बहुरि गोत्रविषै नीच गोत्रहीका उदय है तातें हीन होय रहे हैं। ऐसे तिर्यंचगतिविषै महादुःख जानने ।
मनुष्यगतिके दुःख
बहुरि मनुष्यगतिविषे असंख्याते जीव तो लब्धि अपर्याप्त हैं ते सम्मूर्छन ही हैं, तिनकी तो आयु उश्वासके अठारह भागमात्र है। बहुरि केई जीव गर्भ में आप थोरे ही कालमें मरण पाये हैं तिनकी तो शक्ति प्रगट भासै नाहीं है । तिनके दुःख एकेंद्रियवत् जानना । विशेष है सो विशेष जानना । बहुरि गर्भजनिके कितेक काल गर्भ में रहना पीछे बाह्य निकसना हो है । सो तिनका दुःख का वर्णन कर्म अपेक्षा पूर्वे वर्णन किया है तैसे जानना । यह सर्व वर्णन गर्भज मनुष्यनिकै सम्भवै है अथवा तिर्यंचनिका वर्णन किया है तैसे जानना । विशेष यहै है इहां कोई शक्ति विशेष पाइए है या राजादिकनिकै विशेष साताका उदय हो है वा क्षत्रियादिकनिकै उच्चगोत्रका भी उदय हो है । बहुरि धन कुटुम्बादिकका निमित्त विशेष पाइए है इत्यादि विशेष जानना । अथवा गर्भ आदि अवस्था के दुःख प्रत्यक्ष भासे हैं। जैसे विष्टाविषै लट उपजे तैसे गर्भ में शुक्र शोणितका बिन्दुको अपना शरीररूपकरि जीव उपजै । पीछे तहां क्रमतें ज्ञानादिककी वा शरीरकी वृद्धि हो । गर्भका दुःख बहुत है । संकोचरूप औंधेमुख क्षुधातृषादि सहित तहां काल पूरण करै। बहुरि बाह्य निकसे तब बाल्य अवस्था में महा दुःख हो है। कोऊ कहै - बाल्यावस्था में दुःख थोरा है सो नाहीं है । शक्ति थोरि है तातें व्यक्त न होय सके है। पीछे व्यापारादि वा विषयइच्छा आदि दुःखनिकी प्रगटता हो है । इष्ट अनिष्ट जनित आकुलता रहवो ही करे। पीछे वृद्ध होइ तब शक्तिहीन होइ जाय तब परमदुःखी हो है। सो ए दुःख प्रत्यक्ष होते देखिए है। हम बहुत कहा कहैं। प्रत्यक्ष जाको न भासै सो का कैसे सुने । काहूकै