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तीसरा अधिकार-५३
दुःखको प्रगट भी न करि सके है परन्तु महादुःखी है। बहुरि अन्तरायके तीव्र उदयकरि बहुत धीया होता नाही साते भी दुःखी हो हो है। बहुरि अघातिकर्मनिविष विशेषपने पापप्रकृतिका उदय है तहाँ असातावेदनीयका उदय होते तिसके निमित्त महादुःखी हो है। बहुरि वनस्पती है सो पवनः टूटे है, शीत उष्णकरि सूकि जाय है, जल न मिले सूकि जाय है, अगनिकरि बलै है, ताकों कोऊ छेदै है, भेदै है, मसलै है, खाय है, तोरे है इत्यादि अवस्था होहै। ऐसे ही यथासम्भव पृथ्वी. आदिविषे अवस्था हो हैं। तिन अवस्थाको होते वे महादुःखी हो है। जैसे मनुष्यके शरीर विषै ऐसी अवस्था भए दुःख हो है तैसे ही उनके हो है। जाते इनका जानपना स्पर्शन इन्द्रियतै हो है सो याकै स्पर्शनइन्द्रिय है ही, ताकरि उनको जानि मोहके वशः महाव्याकुल हो हैं परन्तु भागनेकी या लरने की वा पुकारनेकी शक्ति नाहीं तात अज्ञानी लोक उनके दुःखको जानते नाहीं। बहुरि कदाचित् किंचित् साताका उदय होय सो वह बलवान होता नाहीं। बहुरि आयुकर्मत इन एकद्रिय जीवनिविषे जे अपर्याप्त हैं तिनके तो पर्यायकी स्थिति उश्वासके अठारहवें भाग मात्र ही है अर. पर्याप्तनिकी अन्तर्मुहूर्त आदि कितेक वर्ष पर्यंत है। सो आयु थोरा तातै जन्ममरण हुवाही करे, ताकरि दुखी है।
___ बहुरि नामकर्मविष तियच गति आदि पापप्रकृतिनि का ही उदय विशेषपने पाइए है। कोई हीन पुण्य प्रकृतिका उदय होइ ताका बलवानपना नाहीं तातै तिनकरिभी मोहके वशते दुःखी हो है।
बहुरि गोत्रकर्मविषे नीचगोत्रही का उदय है तातै महंतता होय नाहीं तातें भी दुःखी हो है ऐसे एकेन्द्रिय जीय महादुःखी हैं अर इस संसार विष जैसे पाषाण आधारविषै तो बहुत काल रहे है, निराधार
आकाशविषै तो कदाचित् किचिन्मात्रकाल रहे तैसे जीव एकेन्द्रिय पर्यायविर्ष बहुत काल रहे है, अन्य पर्यायविष तो कदाचित् किंचिन्मात्र काल रहै है। तातै यह जीद संसारविषे महादुःखी है।
दो इन्द्रियादिक जीवों के दुःख बहुरि दीन्द्रिय तेन्द्रिय चतुरिन्द्रिय असंजीपंचेन्द्रिय पर्यायनिको जीव धरै तहाँ भी एकेन्द्रियवत् दुःख जानना। विशेष इतना-इहाँ क्रम" एक एक इन्द्रियजनित ज्ञानदर्शनकी वा किछु शक्तिकी अधिकता भई है, बहुरि बोलने-चालने की शक्ति भई है। तहाँ भी जे अपर्याप्त हैं या पर्याप्त भी हीन शक्ति के थारक छोटे जीव है, सिनकी शक्ति प्रगट होती नाहीं । बहुरि केई पर्याप्त बहुत शक्तिके थारक बड़े जीव हैं, तिनकी शक्ति प्रगट हो है। ताते ते जीव विषयनिका उपाय करै हैं, दुःख दूर होने का उपाय करै हैं। क्रोधादिककार काटना, मारना, लरना, छलफरना, अन्नादिका संग्रह करना, भागना इत्यादि कार्य करै है। दुःखकार तड़फड़ाट करना, पुकारना इत्यादि क्रिया करै है। तातै तिनका दुःख किछु प्रगट भी हो है। सो लट कीड़ी आदि जीवन के शीत उष्ण छेदन भेदनादिकरौं या भूख तृषा आदितै परम दुःख देखिए है। जो प्रत्यक्ष दीसै ताका विचार कार लेना। इहाँ विशेष कहा लिखे ऐसे द्वीन्द्रियादिक जीव भी महादुःखी ही जानने।
नरकगति के दुःख बहुरि संजीपंचेन्द्रियनिविर्षे नारकी जीव हैं ते तो सर्व प्रकार घने दुःखी हैं। ज्ञानादिकी शक्ति किछू है परन्तु विषयनिकी इच्छा बहुत अर इष्टविषयनिकी सामग्री किंचित भी न मिले ताते तिस शक्ति के होने