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तीसरा अधिकार- ५७
विशेष- देवगति में अस्थिर, अशुभ व उपघात नाम कर्म की इन अशुभ प्रकृतियों का भी उदय होता है । ( गो . क. ४३ - ४४ ) ( धवल ७ / ५८ ) परन्तु अस्थिर तथा अशुभ प्रकृतियों के ध्रुवोदयी होने से ( गो . क. ५८८ ) तथा शरीरग्रहण के काल से लेकर उपघात का उदय अवश्यम्भावी रूप से बनाने से इनकी हाँ दिक्षा नहीं की है, इतन विशेष जानना चाहिए।
अर गोत्र विषै उच्च गोत्रहीका उदय है तातें महंतपदको प्राप्त हैं। ऐसे इनके पुण्यउदयकी विशेषताकरि इष्ट सामग्री मिली है अर कषायनिकरि इच्छा पाइए है तातें तिनके भोगनेविषै आसक्त होय रहे हैं परन्तु इच्छा अधिक ही रहे है तातें सुखी होते नाहीं । ऊँचे देवनिके उत्कृष्ट पुण्य का उदय है, कषाय बहुत मंद है तथापि तिनकै भी इच्छाका अभाव होता नाहीं, तार्तें परमार्थतें दुःखी ही हैं। ऐसे सर्वही संसारविषै दुःख ही दुःख पाइए है। ऐसे पर्याय अपेक्षा दुःखका वर्णन किया ।
दुःखका सामान्य स्वरूप
अब इस सर्व दुःखका सामान्यस्वरूप कहिए है। दुःखका लक्षण आकुलता है सो आकुलता इच्छा होते हो है। सो इस संसारी जीवकै इच्छा अनेक प्रकार पाइए है। एक तो इच्छा विषय ग्रहण की है सो देख्या जान्या याहै। जैसे वर्ण देखनेकी, राग सुनने की, अव्यक्तको जानने इत्यादिकी इच्छा हो है । सो तहाँ अन्य किछु पीड़ा नाहीं परन्तु यावत् देखे जाने नाहीं तावत् महाव्याकुल होय । इस इच्छाका नाम विषय है । बहुरि एक इच्छा कषाय भावनिके अनुसारि कार्य करने की है सो कार्य किया चाहै। जैसे बुरा करनेकी, हीन करने की इत्यादि इच्छा हो है । सो इहाँ भी अन्य कोई पीड़ा नाहीं । परन्तु यावत् वह कार्य न होइ तावत् महाव्याकुल होय। इस इच्छा का नाम कषाय है। बहुरि एक इच्छा पापके उदय शरीरविषे या बाह्य अनिष्ट कारण मिलें तब उनके दूरि करने की हो है। जैसे रोग पीड़ा क्षुधा आदिका संयोग भए उनके दूरि करनेकी इच्छा हो है । सो इहाँ यहु ही पीड़ा माने है। यावत् यह दूरि न होइ तावत् महाव्याकुल रहे। इस इच्छाका नाम पापका उदय है। ऐसे इन तीन प्रकारकी इच्छा होते सर्व ही दुःख माने है सो दुःख ही है। बहुरि एक इच्छा बाह्य निमित्ततें बने है सो इन तीन प्रकार ही इच्छानिके अनुसारि प्रवर्तने की इच्छा ही है । सो तीन प्रकार इच्छानिविषै एक-एक प्रकार की इच्छा अनेक प्रकार है। तहां कई प्रकार की इच्छा पूरण होने का कारण पुण्यउदयतें मिले। तिनिका साधन युगपत् होइ सकै नाहीं । तातें एक को छोरि अन्यको लागे, आगे भी वाको छोरि अन्य को लागे। जैसे काहूकै अनेक सामग्री मिली है, वह काहूको देखे है, वाको छोरि राग सुने है, वाको छोरि काहूका बुरा करने लग जाय, वाको छोरि भोजन करे है अथवा देखने विष ही एक को देखि अन्यको देखे है । ऐसे ही अनेक कार्यनिकी प्रवृत्तिं विषै इच्छा हो है सो इस इच्छा का नाम पुण्य का उदय है। पाको जगत् सुख माने है सो सुख है नाहीं, दुःख ही है। काहेतै - प्रथम तो सर्वप्रकार इच्छा पूरन होने के कारण काहूकै भी न बने। अर कोई प्रकार इच्छा पूरन करने के कारण बने तो युगपत् तिनका साधन न होय । सो एकका साधन यावत् न होय तावत् बाकी आकुलता रहे है, वाका साधन भए उस हो समय अन्यका साधन की इच्छा हो है तब बाकी आकुलता होय । एक समय भी निराकुल न रहे, तातैं दुःख