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मोक्षमार्ग प्रकाशक-६८
है। अर यहु तो जाने, सर्वथा दुःख दूर होनेका कारन इष्ट सामग्रीनिको मिलाय सर्वथा सुखी होगा सो कदाचित् होय सकै नाहीं। यहु वृथा ही खेद कर है। ऐसे मिथ्यादर्शनसे मोक्षतत्त्वका अयथार्थ ज्ञान होनेते अयथार्थ श्रद्धान है। या प्रकार यह जीव मिथ्यादर्शनः जीवादि सप्त तत्त्व जे प्रयोजनभूत है तिनका अयथार्थ श्रद्धान करै है। बहुरि पुण्यपाप हैं ते इनहीके विशेष है। सो इन पुण्यपापनिकी एक जाति है तथापि मिथ्यावनित पुण्यको मला जाने है, पापको गुरा जाने है। पुण्यकरि अपनी इच्छाके अनुसार किंचित् कार्य बने है, ताको मला जाने है। पापकरि इच्छाके अनुसार कार्य न बने ताको बुरा जाने सो दोनों ही आकुलता के कारण है, तातै बुरे ही हैं। बहुरि यहु अपनी मानित तहाँ सुख-दुःख मान है। परमार्थत जहाँ आकुलता है तहाँ दुःख ही है। तास पुण्यपापके उदयको भला बुरा जानना श्रम ही है। बहुरि कोई जीव कदाचित पुण्यपापके कारन जे शुभ अशुभ भाव तिनको भले बुरे जाने है सो भी अम ही है, जात दोऊ ही कर्मबन्थन के कारण हैं। ऐसे पुण्यपापका अयथार्थज्ञान होते अयथार्थश्रद्धान हो है। या प्रकार अतत्त्वश्रद्धानरूप मिथ्यादर्शनका स्वरूप कहा। यहु असत्यरूप है तातें याहीका नाम मिथ्यात्व है। बहुरि यहु सत्यश्रद्धानते रहित है तात याहीका नाम अदर्शन है।
विशेष-उपर्युक्त कथन कथञ्चित् ठीक है। तथापि कथञ्चित् निम्नलिखित व्याख्यान भी शिरोधार्य करना चाहिए-हेतु और कार्य की विशेषता होने से पुण्य तथा पाप में अन्तर है। पुण्य का हेतु शुभ भाव है और पाप का हेतु अशुभ भाव है। पुण्य का कार्य सुख है और पाप का कार्य दुःख है। (अमृतचन्द्राचार्य) मूलवाक्य : हेतुकार्यविशेषाभ्यां विशेषः पुण्यपापयोः। हेतुशुभाशुभी भावी, कार्ये च सुखासुखे। तत्त्वार्थसार ४/१०३। इस प्रकार अमृतचन्द्राचार्य ही पुण्य तथा पाप में भेद का व्याख्यान करते हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य ने भी कहा है-वर वयतवेहिं सग्गो मा दुक्खं होउ णिरय इयरेहिं । छायातवट्ठियाणं पडिवालंताण गुरुभेयं । (मो.पा. गाथा २५) अर्थः- जिस प्रकार छाया तथा आतप में स्थित पथिकों के प्रतिपालक कारणों में बड़ा भेद है, उसी प्रकार पुण्य व पाप में भी बड़ा भेद है। व्रत सप आदि रूप पुण्य श्रेष्ठ है क्योंकि उससे स्वर्ग की प्राप्ति होती है और उससे विपरीत अव्रत तथा अतप आदि रूप पाप श्रेष्ठ नहीं है क्योंकि उससे नरक की प्राप्ति होती है।
स्वामी वीरसेन कहते हैं कि तीर्थकर, गणथर, ऋषि, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव और विद्याधरों की ऋद्धियाँ पुण्य के फल हैं (धवल १/१०५)। जिनसेन स्वामी कहते हैं कि है पण्डितजम! चक्रवर्ती की विभूति को पुण्य के उदय से उत्पन्न हुई मानकर उस पुण्य का संचय करो जो समस्त सुखसम्पदाओं की खान है (मझपुराण ३७/२००) -
ततः पुण्योदयोदभूतां मत्वा चक्रमृतः श्रियं। विनुष्वं मो। बुयाः पुण्यं यत् पण्यः सुखसम्पदाम् ।।२०० ।।