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तीसरा अधिकार - ६१
के निमित्त नीचकुल पाए दुःख मानै था सो ताका अभाव होने हैं दुःखका कारण रह्या नाहीं । बहुरि उच्चकुल पाए सुख मानै था सो अब उच्चकुल बिनाही त्रैलोक्यपूज्य उच्चपदको प्राप्त है, या प्रकार सिद्धनिके सर्वकर्मके नाश होने सर्व दुःख का नाश भया है।
दुःखका तो लक्षण आकुलता है सो आकुलता तब ही हो है जब इच्छा होय । सो इच्छा का वा इच्छा के कारणनिका सर्वथा अभाव भया तातैं निराकुल होय सर्व दुःखरहित अनन्त सुखको अनुभव है, जाते निराकुलपना ही सुख का लक्षण है । संसारविषे भी कोई प्रकार निराकुलित होइ तब ही सुख मानिए है । जहाँ सर्वया निराकुल भया तहाँ सुख सम्पूर्ण कैसे न मानिए ? या प्रकार सम्यग्दर्शनादि साधन सिद्ध पद पाए सर्व दुःख का अभाव हो है, सर्व सुख प्रगट हो है ।
अब इहाँ उपदेश दीजिए है- हे भव्य ! हे भाई जो तोकूं संसार के दुःख दिखाए, ते तुझ विषै बीते हैं कि नाहीं सौ विचारि! अर तू उपाय करे. है ते झूठे दिखाए सो ऐसे ही है कि नाहीं सो विचारि । अर सिद्धपद पाए सुख होय कि नाहीं सो विधारि। जो तेरे प्रतीति जैसे कही है तैसे ही आवै है तो तू संसारतें छूटि सिद्धपद पावने का हम उपाय कहे हैं सो करि, विलम्ब मति करै। यह उपाय किए तेरा कल्याण होगा ।
इति श्री मोक्षमार्गप्रकाशक नाम शास्त्रविषे संसार- दुःखका या
मोक्षसुखका निरूपक तृतीय अधिकार पूर्ण भया ॥३॥
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