________________
मोक्षमार्ग प्रकाशक-५०
के वेदक असाताके वेदकों से संख्यातगुणे हैं अर्थात् नरक गति को छोड़ कर शेष गतियों में असातावान जीवों की अपेक्षा सातावान (इन्द्रिय सुख से सुखी) जीव बहुत अधिक (संख्यातगुणे) हैं परन्तु एकेन्द्रियों में साता वेदकां से असातावेदक संख्यातगुणे है। सारतः एकेन्द्रियों तथा नारकियों में तो दुःखी अधिक व सुखी जीव कम हैं। परन्तु शेष त्रसों में दुःखी कम, सुखी अधिक है। यह अकाट्य सत्य है।
लक्ष धनका धनीकै सहस्र धनका व्यय भया तब वह तो दुःखी है अर शत धनका धनीके सहनधन मया तब वह सुख मानै है; बाह्यसामग्री तो वाकै यात निन्याणवै गुणी है। अथवा लक्ष धन का धनीकै अधिक धन की इच्छा है तो वह दुःखी है अर शत धनका धनीकै सन्तोष है तो यहु सुखी है। बहुरि समान वस्तु मिले कोऊ सुख मान है, कोऊ दुःख मान है। जैसे काहूको मोटा वस्त्रका मिलना दुःखकारी होइ, काहूको सुखकारी होइ, बहुरि शरीर विष क्षुधा आदि पीड़ा वा बाह्य इष्टका वियोग अनिष्टका संयोग भए काहू के बहुत दुःख होइ काहूकै थोरा होइ, काहूकै न होइ तात सामग्री के आधीन सुख-दुःख नाहीं। साताअसाता का उदय होते मोहपरिणमन के निमित्तते ही सुख दुःख मानिए है।
इहाँ प्रश्न-जो बाह्य सामग्रीकी तो तुम कहो हो तैसे ही है परन्तु शरीरविर्ष तो पीड़ा भए दुःखी होय ही होय अर पीड़ा न भए सुखी होय सो यह तो शरीरअवस्था ही के आधीन सुख - दुःख भारी है।
ताका समाधान-आत्माका जो ज्ञान इन्द्रियाधीन है अर इन्द्रिय शरीरका अंग है, सो यामें जो अवस्था बीतै ताका जाननेरूप ज्ञान परिणमै ताकी साथ ही मोहभाव होइ ताकरि शरीर अवस्थाकार सुख-दुःख विशेष जानिए है। बहुरि पुत्र धनादिकस्यों अधिक मोह होय तो अपना शरीर का कष्ट सह ताका थोरा दुःख माने, उनको दुःख भए वा संयोग मिटे बहुत दुःख माने। अर मुनि है सो शरीरको पीड़ा होते भी किछू दुःख मानते नाहीं। तातें सुख दुःख मानना तो मोहही के आधीन है। मोहके अर वेदनीयके निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध है नाहै साता असाताका उदयते सुख-दुःखका होना भास है। बहुरि मुख्यपने केतीक सामग्री साताके उदयतै हो है, केतीफ असाताके उदयतै हो है साकार सामग्रीनिकरि सुख-दुःख भास है। परन्तु निर्धार किए मोहहीत सुख-दुःख का मानना हो है, औरनिकरि सुख-दुःख होने का नियम नाहीं। केवलीकै साता असाताका उदय भी है अर सुख-दुःख को कारण सामग्री का भी संयोग है परन्तु मोहका अभावते किंचिन्मात्र भी सुख दुःख होता नाहीं, तात सुख दुःख मोहजनित ही मानना। तातें तू सामग्री के दूर करने का वा होने का उपायकरि दुःख मेट्या चाहै, सुखी भया चाहै सो यहु उपाय झूठा है, तो सौंचा उपाय कहा है?
सम्यग्दर्शनादिकत प्रम दूर होइ तब सामग्रीत सुख-दुःख भासे नाही, अपने परिणामहीत मास; बहुरि यथार्थ विचारका अभ्यासकरि अपने परिणाम जैसे सामग्री के निमित्तते सुखी दुःखी न होय तैसे साधन कर। बहुरि सम्यग्दर्शनादि भावनाहीत मोह मंद होइ जाय तब ऐसी दशा होइ जाय तो अनेक कारण मिले आपको सुख दुःख होइ नाहीं। जब एक शांतदशारूप निराकुल होइ सांचासुखको अनुभवै तब सर्व दुःख मिटै'