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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४
अनुभाग हीन होय । ऐसे होते कषायनिका अभाव होइ तब तिनकी पीड़ा दूर होय। तब प्रयोजन भी किछू रहै नाही, निराकुल होने से महासुखी होइ। तातें सम्यग्दर्शनादिक ही इस दुःख मेटनेका सांचा उपाय है।
अन्तराय से दुःख की प्राप्ति और उसकी निवृत्ति का सच्चा उपाय
बहुरि अन्तरायका उदयते जीक्के मोहकरि दान लाभ भोग उपभोग वीर्य शक्ति का उत्साह उपजै परन्तु होइ सकै नाहीं । तब परम आकुलता होइ सो यह दुःखरूप है ही. याका उपाय यह करै कि जो विघ्नके बाह्य कारण सूझै तिनके दूर करने का उद्यम करै सो यह उपाय झूठा है। उपाय किए भी अन्तरायका उदय होतें विघ्न होता देखिए है 1 अन्तरायका क्षयोपशम भए उपाय बिना भी कार्यविषै विघ्न न हो है। ता” विघ्नन का मूलकारण अंतराय है। बहुरि जैसे कूकराकै पुरुषकार वाही हुई लाठी लागी, वह कूकरा लाठीस्यों वृथा ही द्वेष करै है। तैसे जीवके अन्तरायकरि निमित्तभूत किया बाह्य चेतन अचेतन द्रव्यकरि विघ्न भया। यह जीव तिन बाह्य द्रव्यनिसों वृथा द्वेष कर है। अन्यद्रव्य याकै विघ्न किया चाहै अर याकै न होइ। बहुरि अन्य द्रव्य विघ्न किया न चाह अर याकै होइ। तातें जानिए है, अन्य द्रव्यका किछु वश नाही, जिनका वश नाहीं तिनिसों काहेको लरिये। तातै यह उपाय झूठा है। सो सांचा उपाय कहा है? मिथ्यादर्शनादिकतै इच्छाकरि उत्साह उपर्ज था सो सम्यग्दर्शनादिककार दूर होय अर सम्यग्दर्शनादिक ही करि अंतरायक अनुभाग घटै तब इच्छा तो मिटि जाय, शक्ति बधि जाय तब वह दुःख दूर होइ निराकुल सुख उपजै । ताते सम्यग्दर्शनादिक ही सांचा उपाय है।
बहुरि वेदनीयके उदयनै दुःख - सुखके कारण का संयोग हो है। तहाँ केई तो शरीर विष ही अवस्था हो हैं। केई शरीर की अवस्था को निमित्तभूत बाह्य संयोग हो है, केई बाह्य ही वस्तूनिका संयोग हो है। तहाँ असाताके उदयकरि शरीर विषै तो क्षुधा, तृषा, उस्वास, पीड़ा, रोग इत्यादि हो हैं। बहुरि शरीर की अनिष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाह्य अति शीत उष्ण पवन बंधनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य शत्रु कुपुत्रादिक वा कुवर्णादिक सहित स्कंधनिका संयोग हो है। तो मोहकरि इन विष अनिष्ट बुद्धि हो है। जब इनका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवै जाकरि परिणामनिमें महाव्याकुल होइ इनको दूर किया थाहै। यावत् ए दूर न होय तावत् दुःखी रहै सो इनके होते तो सर्व ही दुःख माने है; बहुरि साता के उदयकरि शरीरविषै आरोग्यवानपनो बलवानपनो इत्यादि हो है। बहुरि शरीरकी इष्ट अवस्थाको निमित्तभूत बाझ खानपानादिक वा सुहावना पवनादिकका संयोग हो है। बहुरि बाह्य मित्र सुपुत्र स्त्री किंकर हस्ती घोटक धन-धान्य मन्दिर वस्त्रादिकका संयोग हो है सो मोहकरि इनविषै इष्टबुद्धि हो है। जब इनका उदय होय तब मोहका उदय ऐसा ही आवे जाकरि परिणामनिमें चैन माने। इनकी रक्षा चाहे, यावत् रहै तावत् सुख मान। सो यह सुख मानना ऐसा है जैसे कोऊ घने रोगनिकरि बहुत पीड़ित होय रमा था ताके कोई उपचारकरि कोई एक रोगकी कितेक काल किछू उपशांतता भई तब वह पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपको सुखी कहै, परमार्थते सुख है नाहीं । तैसे यह जीव घने दुःखनिकरि बहुत पीड़ित होई रह्या था ताके कोई प्रकार कार कोऊ एक दुःखकी कितेक काल किछु उपशांतता भई। तब यहु पूर्व अवस्थाकी अपेक्षा आपको सुखी कहै है, परमार्थतै सुख है. नाहीं । बहुरि याको असाताका उदय होते जो होय ताकरि तो दुःख भासै