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तीनग अधिकार -
जुगुप्साका कारण दूर होना, पुरुषवेदविषै स्त्रीस्यों रमना, स्त्रीवेदविष पुरुषस्यों रमना, नपुंसकवेदविषे दोऊनिस्यों रमना, ऐसे प्रयोजन पाइए है। सो इनकी सिद्धि होय तो कषाय उपशमनेत दुःख दूरि होय जाय, सुखी होय परन्तु इनकी सिद्धि इनके किए उपायनिके आधीन नाहीं, भवितव्य के आधीन है। जात अनेक उपाय करते देखिये है अर सिद्धि न हो है। बहुरि उपाय बनना भी अपने आधीन नाहीं, भवितव्यके आधीन है। जाते अनेक उपाय करना विचार और एक भी उपाय न होता देखिए है। बहुरि काकतालीय न्यायकरि भवितव्य ऐसा ही होय, जैसा आपका प्रयोजन होय तैसा ही उपाय होय अर तातै कार्य-सिद्धि भी होय जाय तो तिस कार्य सम्बन्धी कोई कषायका उपशम होय परन्तु तहाँ थम्भाव होता नाहीं। यावत् कार्य सिद्ध न मया तावत् तो तिस कार्य सम्बन्धी कषाय थी, जिस समय कार्य सिद्ध भया तिस ही समय अन्य कार्य सम्बन्धी कषाय होइ जाय। एक समय मात्र भी निराकुल रहै नाहीं। जैसे कोऊ क्रोथरि काहूका बुरा विचार था, वाका बुरा होय धुक्या तब अन्य सों क्रोधकरि वाका बुरा चाहने लाग्या अथवा थोरी शक्ति थी तब छोटेनिका बुरा चाहै या, धनी शक्ति भई तब बड़ेनिका बुरा चाहने लाग्या। ऐसे ही मानमाया लोभादिक कारे जो कार्य विचार था सो सिद्ध होय चुक्या तब अन्य विषे मानादिक उपजाय तिस की सिद्धि किया चाहै। थोरी शक्ति थी तब छोटे कार्य की सिद्धि किया चाहै था, धनी शक्ति भई तब बड़े कार्य की सिद्धि करने का अभिलाषी भया । कषायनिविषे कार्यका प्रमाण होइ तो तिस कार्यकी सिद्धि भए सुखी होइ जाय सो प्रमाण है नाहीं, इच्छा बघती ही जाय। सोई आत्मानुशासनविषे कह्या है
आशागर्तः प्रतिप्राणी यस्मिन्विश्वमणूपमम् ।
कस्य किं कियदायाति वृथा यो विषयषिता ।।३६।। याका अर्थ- आशासपी खाड़ा प्राणी-प्राणी प्रति पाइए है। अनंतानंत जीव है तिन सबनिकै हो आशा पाइए है। बहुरि वह आशारूपी खाड़ा कैसा है, जिस एक ही खाड़े विष समस्त लोक अणुसमान है। अर लोक एक ही सो अब इहां कौन-कौनके कितना-किसना बटवारे* आवै। तुम्हारे यह विषयनिकी इच्छा है सो वृथा ही है। इच्छा पूर्ण तो होती ही नाहीं। सात कोई कार्य सिद्ध भए भी दुःख दूर न होय अथवा कोई कषाय मिटै तिसही समय अन्य कषाय होइ जाय। जैसे काहूको मारनेवाले बहुत होय, जब कोई वाकू न मारे तब अन्य मारने लगि जाय। तैसे जीवकों दुःख द्यावनेवाले अनेक कषाय है, जब क्रोष न होय तब मानादिक होइ जाय, जब मान न होइ तब क्रोधादिक होइ जाय। ऐसे कषायका सद्भाव रया ही करे कोई एक समय भी कषाय रहित होय नाहीं । तातें कोई कषायका कोई कार्य सिद्ध भए भी दुःख दूर कैसे होइ? बहुरि याकै अभिप्राय तो सर्वकषायनिका सर्यप्रयोजन सिद्ध करनेका है सो होइ तो सुखी लेइ। सो तो कदाचित् होई सके नाहीं। तातै अभिप्राय विषे शाश्वत दुःखी ही रहै है। ताः कषापनिका प्रयोजनको साधि दुःख दूरिकरि सुखी मया चाई है, सो यहु उपाय झूठा ही है तो साधा उपाय का सम्यग्दर्शनमालते यथावत् खान वा जानना होइ तब इष्ट अनिष्ट बुद्धि पिटै। बहुरि तिनहीके बलकार चारित्रमोहका
* बांटमें-हिस्से में।
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