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मोक्षमार्ग प्रयशक-३६
उदयकरि कहीं अनिष्टपनो मान दिलगीर हो है, विषाद मानै है। बहुरि भयका उदयकरि किसीको अनिष्ट मान तिसत डरै है, वाका संयोग न चाहै है। बहुरि जुगुप्साका उदयकरि काहू पदार्थको अनिष्ट मान ताकी घृणा करै है, वाका वियोग चाहै है। ऐसे ए हास्यादिक छह जानने। बहुरि वेदनिके उदयते. याकै कानपरिणाम हो है तहाँ स्त्रीवेदके उदयकरि पुरुषसों रमनेकी इच्छा हो है। अर पुरुषवेद के उदयकरि स्त्रीसों रमने की इच्छा हो है। अर नपुंसकवेदके उदयकरि युगपत् दोऊनिसों रमने की इच्छा हो है, ऐसे ए नय तो नोकषाय हैं। क्रोधादि सारिखे ए बलवान नाहीं तातैं इनको ईषत्कषाय कहै हैं। यहाँ नोशब्द ईषत् वाचक जानना। इनका उदय तिन क्रोधादिकनिकी साथ यथासम्भव हो है। ऐसे मोहके उदयतें मिथ्यात्व . वा कषायभाव हो हैं सो ए संसारके मूल कारण ही हैं। इनही करि वर्तमान काल विषै जीव दुःखी है अर आगामी कर्मबन्धनके भी कारण ए ही हैं। बहुरि इनहीका नाम राग द्वेष मोह है। तहां मिथ्यात्वका नाम मोह है, जाते जहाँ सावधानीका अभाव है। बहुरि माया लोभ कषाय अर हास्य रति तीन वेदनिका नाम राग है जारौं तहाँ इष्टबुद्धि करि अनुराग पाइए है। बहुरि क्रोध मन कषाय अर अरति शोक भय जुगुप्सानिका नाम द्वेष है जाते तहाँ अनिष्ट बुद्धि करि द्वेष पाइए है। बहुरि सामान्यपने सबही का नाम मोह है। तातें इन विष सर्वत्र असावधानी पाइए है।
बहुरि अन्तरायके उदयते जीव चाहै सो न होय । दान दिया चाहै देय न सके। वस्तुकी प्राप्ति चाहे सो न होय। भोग किया चाहै सो न होय। उपभोग किया चाहै सो न होय। अपनी ज्ञानादि शक्तिको प्रगट किया चाहै सो न प्रगट होय सके। ऐसे अन्तरायके उदयतें चाह्या होय नाहीं। बहुरि तिसहीका क्षयोपशमत किंचिन्मात्र चाह्या भी हो है। चाहिए तो बहुत है परन्तु कंचिन्मात्र (चाह्या हुआ होय है। बहुत दान देना चाई है परन्तु थोड़ा हो*) दान देय सके है। बहुत लाभ चाहै है परन्तु थोड़ा ही लाभ हो है। ज्ञानादिक शक्ति प्रगट हो है तहाँ भी अनेक बाह्य कारण चाहिए। या प्रकार घातिकर्मनिके उदयतै जीवकै अवस्था हो
बहुरि अघातिकर्मनिविष वेदनीयके उदयकारे शरीर विष वाम सुख दुःखका कारण निपजे है। शरीरविषै आरोग्यपनो रोगीपनो शक्तिथानपनो दुर्बलपनो इत्यादि अर क्षुधा तृषा रोग खेद पीड़ा इत्यादि सुख दुःखनिके कारण हो हैं। बहुरि बाधविष सुहावना ऋतु पवनादिक वा इष्ट स्त्री पुत्रादिक या मित्र धनादिक, असुहावनी ऋतु पवनादिक वा अनिष्ट स्त्री पुत्रादिक वा शत्रु दरिद्र वथबंधनादिक सुख दुःखको कारण हो है। ए बाह्य कारण कहे तिन विषै केई कारण तो ऐसे हैं जिनके निमित्तस्यों शरीर की अवस्था सुख दुःखको कारण हो है अर वे ही सुख दुःखको कारण हो हैं। बहुरि केई कारण ऐसे हैं जे आप ही सुख दुःखको कारण हो हैं। ऐसे कारण का मिलना वेदनीयके उदयतें ही है। तहाँ साता वेदनीयते सुखके कारण मिले अर असातावेदनीयतें दुःखके कारण मिले। सो इहाँ ऐसा जानना, ए कारणही तो सुख-दुःखको उपजावै नाही, आत्मा मोहकर्म का उदयतें आप सुख दुःख मान है। तहाँ वेदनीयकर्मका उदयकै अर मोहकर्मका
* यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है किन्तु अन्य सब प्रतियों में है, इस कारण आवश्यक जान यहाँ दे दी गई है।