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दूसरा अधिकार-३५
अर्थात् आज से ४०० वर्ष पहिले तक स्वरूपाचरण नाम का जैनागम में कहीं कोई उल्लेख/अस्तित्व नहीं या' अतः पं. कैलाशचन्द्र जैन सिद्धान्तशास्त्री ने ठीक ही लिखा है कि सम्यक्त्वाचरण चारित्र को स्वरूपाचरण चारित्र का पूर्व रूप कहना उचित होगा । सम्यक्त्वाचरण चारित्र ही स्वरूपाचरण चारित्र नाम के रूप में परिवर्तित हुआ जान पड़ता है। पण्डित जगन्मोहनलाल सिद्धान्तशास्त्री लिखते है कि "अविरत सम्यग्दृष्टि के संयम भाव के बिना भी सम्यक्चारित्र होता है । उसे आचार्य कुन्दकुन्द (तथा भगवद् वीरसेन स्वामी) सम्यक्त्वाचरण कहते हैं । (चारित्रामृत गाथा ३ से १२) तथा उसे ही पंचाध्यायीकार तथा अन्य ग्रन्थकार स्वरूपाचरण कहते हैं । मात्र माम में अन्तर है ।"
उक्त कथनों से अत्यन्त स्पष्ट है कि चतुर्थगुणस्थान में होने वाले चारित्र को आचार्य कुन्दकुन्द आदि ने सम्यक्त्वाधरण चारित्र ही कहा है, स्वरूपाचरण नहीं । षवल, जयधवल, महाधवल तथा आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों में कहीं भी यह नहीं लिखा है कि चतुर्थगुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र होता है । अत: चतुर्थ गुणस्थान में होने वाले चारित्र का नाम 'सम्यक्त्वाचरण' ही समीचीन है जिसका समर्थन चारित्रप्राभृत आदि से होता है।
जिनका उदय होते देशचारित्र न होय ताते किंचित त्याग भी न होय सके, ते अप्रत्याख्यानावरण कषाय है । बहुरि जिनका उदय होतें सकलचारित्र न होय तातें, सर्व का त्याग न होय सकै ते प्रत्याख्यानावरण कषाय हैं। बहुरि जिनका उदय होते सकलचारित्र को दोष उपज्या करै ताते यथाख्यातचारित्र न छोय सके, ते संज्वलन कषाय हैं । सो अनादि संसार अवस्थाविषै इन चारयों ही कषायनिका निरन्तर उदय पाइए है । परमकृष्णलेश्यारूप तीव्रकषाय होय तहाँ भी अर शुक्ललेश्यारूप मंदकषाय होय तहाँ भी निरन्तर ध्यात्योंही का उदय रहै है । जातै तीव्रमन्द की अपेक्षा अनन्तानुबन्धी आदि भेट नाहीं हैं, सम्यक्त्वादि घातने की अपेक्षा ए भेद हैं । इनही प्रकृतिनिका तीव्र अनुभाग उदय होते तीव्र क्रोधादिक हो है, मन्द अनुभाग उदय होत मन्द उदय हो है । बहुरि मोक्षमार्ग भए इन च्यारों विष सीन, दोय, एक का उदय हो है, पीछे च्यारयों का अभाव हो है । बहुरि क्रोषादिक च्यारयों कषायनिविष एककाल एक ही का उदय हो है। इन कषायनिकै परस्पर कारणकार्यपनो है। क्रोधकरि मानदिक होय जाय, मानकरि क्रोधादिक होय जाय, तात काहू काल भिन्नता मासै काहू काल न मासै है ! ऐसे कषावरूप परिणमन जानना ।
बहुरि घारिन मोह ही के उदयतै नोकषाय हो हैं तहां हास्य का उदयकरि कहीं इष्टपनो मानि प्रफुल्लित . हो है, हर्ष मानै है । बहुरि रतिका उदयकरि काहू को इष्ट मान प्रीति करे है तहां आसक्त हो है । बहुरि अरतिका उदयकरि काहू को अनिष्ट मान अप्रीति कर है तहाँ उद्वेगरूप हो है । बहुरि शोक का
.. पं. कैलाशचन्द्र सि. शास्त्री अभिनन्दन ग्रन्थ पृ. १६६ तथा समकित आदि निबंध संग्रह, पृ. ४२ (शिवसागर ग्रंथमाला) २. कुन्दकुन्द प्रामृत संग्रह प्रस्तावना पृ. ६७ । ३. अध्यात्म अमृतकलश प्रस्तावना पृ. ४६, दि. जैन मन्दिर, कटनी। ४. आर्यिका विशुद्धमति अभिनन्दन प्रन्य (सं. टीकमचंद जैन, दिल्ली) में पृष्ठ संख्या ४४६ से ४५२ तक २१ प्रकरणों
से यह सिद्ध किया गया है कि चौथे गुणस्थान में स्वरूपाचरण चारित्र नहीं होता है ।