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मोक्षमार्ग प्रकाशक-४४
सर्व प्रकार करि वह चाहै तैसे न परिणमै । तातें अभिप्रायविर्ष तो अनेक आकुलता सदाकाल रहवो ही करे। बहुरि कोई कालविष कोई प्रकार इच्छा अनुसार परिणमता देखिकरि यह जीव शरीर पुत्रादिक विषै अहंकार ममकार करै है। सो इस बुद्धिकरि तिनके उपजाबनेकी वा वधावनेकी वा रक्षा करनेकी चिंताकरि निरन्तर व्याकुल रहे है। नाना प्रकार कष्ट सहकरि भी तिनका भला चाहे है। बहुरि जो विषयनि की इच्छा हो है, कपाय हो है, वाह्य साम्रगीविय इष्ट अनिष्टानो मान है, उपाय अन्यथा करे है, साँचा उपायको न श्रद्धह है, अन्यथा कल्पना करै है सो इन सबनिका मूलकारण एक मिथ्यादर्शन है। याका नाश भए सवनिका नाश होइ जाय तातै सब दुःखनिका मूल यह मिथ्यादर्शन है। बहुरि इस मिथ्यादर्शनके नाशका उपाय भी नाहीं करै है। अन्यथा श्रद्धानको सत्य श्रन्द्रान मान, उपाय काहेको करै। बहुरि संजी पंचेन्द्रिय कदाचित् तत्त्व निश्चय करनेका उपाय विचारै तहां अभाग्यनै कुदेव कुगुरु कुशास्त्रका निमित्त बनै तो अतत्त्व श्रद्धान पुष्ट होइ जाय; यह तो जानै कि इनतें मेरा भला होगा, ये ऐसा उपाय करै जाकरि यह अचेत होय जाय। वस्तु स्वरूपका विचार करनेका उद्यमी भया था सो विपरीत विचारविष दृढ़ होय जाय। तव विषयकषाय की वासना बधनेते आंधक दुःखा होइ। बहुरि कदाचित् सुदेव सुगुरु सुशास्त्रका भी निमित्त बनि जाय तो तहां तिनका निश्चय उपदेशको तो खहै नाही, व्यवहार श्रद्धानकरि अतस्वश्रद्धानी ही रहे। तहां मंद कषाय होय या विषय इच्छा घटै तो थोरा दुःखी होय, पीछे बहुरि जैसाका तैसा होइ जाय । तातै यह संसारी उपाय करै सो भी झूटा ही होय । बहुरि इस संसारीकै एक यह उपाय है जो आपके जैसा श्रद्धान है तैसे पदार्थनिको परिणमाया चाहै सो वे परिणमै तो याका सांचा श्रद्धान होय जाय परन्तु अनादिनिधन वस्तु जुदी-जुदी अपनी मर्यादा लिये परिणमै है, कोऊ कोऊके आधीन नाहीं। कोऊ किसी का परिणमाया परिणमै नाही तिनको परिणमाया चाहै सो उपाय नाहीं। यह तो मिथ्यादर्शन ही है। तो सांचा उपाय कहा है? जैसे पदार्थानका स्वरूप है तैसे श्रद्धान होइ तो सर्व दुःख दूरि हो जाय। जैसे कोऊ मोहित होय मुरदाको जीवता माने वा जिवाया चाहै तो आप ही दुःखी हो है। बहुरि वाको मुरदा मानना अर यह जिवाया जीवेगा नाहीं ऐसा मानना . सो ही तिस दुःख दूर होनेका उपाय है। तैसे मिध्यादृष्टि होइ पदार्थनिको अन्यथा माने, अन्यथा परिणमाया चाहै तो आप ही दुःखी हो है। बहुरि उनको यथार्थ मानना अर ए परिणमाए अन्यथा परिणमेंगे नाही, ऐसा मानना सोही तिस दुःखके दूर होने का उपाय है। प्रमजनित दुःखका उपाय भ्रम दूर करना ही है। सो प्रम दूर होनेते सम्यक्श्रद्धान होय सो ही सत्य उपाय जानना। चारित्रमोह के उदय से दुःख की प्राप्ति तथा उसकी निवृत्ति के उपाय का झूठापना
बहुरि चारित्रमोह के उदयतें क्रोधादि कषायरूप या हास्यादि नोकषायरूप जीव के भाव हो हैं। तब यह जीव क्लेशवान होय दुःखी होता संता विहल होय नाना कुकार्यनिविषै प्रयतॆ है। सोई दिखाइए है-जब याकै क्रोध कषाय उपजै तब अन्यका बुरा करने की इच्छा होइ। बहुरि ताकै अर्थि अनेक उपाय विचारै। मरमच्छेद गालीप्रदानादिरूप यचन बोले। अपने अंगनि करि वा शस्त्रपाषाणादिकरि घात करै। अनेक कष्ट सहनेकरि वा धनादि खर्चनेकार वा मरणादिकरि अपना भी बुरा कर अन्यका बुरा करने का उद्यम करै। अथवा औरनि करि बुरा होता जाने तो औरनिकरि बुरा कराये। वाका स्वयमेव बुरा होय तो अनुमोदना