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दूसरा अधिकार- २६
आड़ा आये तो बहुत दीसने लग जाय । प्रकाश जल हिलबी कांच इत्यादिकके परमाणु आड़े आवे तो भी 'जैसाका तैसा दीखै। ऐसे अन्य इन्द्रिय वा मनके भी यथासम्भव निमित्तनैमित्तिकपना जानना । बहुरि मंत्रादिक प्रयोग वा मदिरा पानादिकत वा भूतादिकके निमित्ततें न जानना वा धोरा जानना वा अन्यथा जानना हो है। ऐसे बहु मतिज्ञान बाह्य द्रव्यके भी आधीन जानना । बहुरि इस ज्ञानकरि जो जानना हो है सो अस्पष्ट जानना हो है। दूरितें कैसा ही जाने, समीपतें कैसा ही जाने, तत्काल कैसा ही जाने, जानते बहुत बार होय जाय तब कैसा ही जाने । काहूको संशय लिए जाने, काहूको अन्यथा जाने, काहूको किंचित् जाने इत्यादि
करि निर्माण जानना होय सकै नाहीं। ऐसे यहु मतिज्ञान पराधीनता के लिए इन्द्रिय मन द्वारकरि प्रक्त है। इन्द्रियनिकरि तो जितने क्षेत्रका विषय होय तितने क्षेत्र विषै जे वर्तमान स्थूल अपने जानने योग्य पुदुक्लस्कंप होय तिनहीको जाने। तिन विषै भी जुदे - जुदे इन्द्रियनिकरि जुदे जुदेकालविषै कोई स्कंधके स्पर्शादिकका जानना हो है । बहुरि मनकरि अपने जानने योग्य किंवा किर्ती समीप क्षेत्रवती रूपी अरूपी द्रव्य वा पर्याय तिनको अत्यन्त अस्पष्टपने जाने है सो भी इन्द्रियनिकरि जाका ज्ञान भया होय वा अनुमानादिक जाका किया होय तिसहीको जान सकै है। बहुरि कदाचित् अपनी कल्पना ठीकार जसको जाने है। जैसे सुपने विषे वा जागते भी जे कदाचित् कहीं न पाइए ऐसे आकारादिक चिंतवै जैसे नाहीं तैसे माने या ऐसे मन करि जानना होय है सो यहु इन्द्रिय वा मन द्वारकरि जो ज्ञान हो है ताका गाण मतिज्ञान है। तहां पृथ्वी जल अग्नि पवन वनस्पतीरूप एकेन्द्रिय के स्पर्शहीका ज्ञान है। लट शंख आदि मेहन्द्रिय जीवनिकै स्पर्श रसका ज्ञान है। कीड़ी मकोड़ा आदि तेइन्द्रिय जीवनिकै स्पर्श रस गंध वर्णका ज्ञान फेबूतर इत्यादि तियंच अर मनुष्य देव नारकी ए पंचेन्द्रिय हैं तिनकै स्पर्श रस गंध वर्ण मध्यनिका ज्ञान है बहुरि तिर्यचनिविषे केई संज्ञी है कई असंज्ञी हैं। तहां संज्ञीनिकै मनजनित ज्ञान है, अस्थानिक नाहीं है। बहुरि मनुष्य देव नारकी संज्ञी ही हैं, तिन सबनिकै मनजनित ज्ञान पाइए है, ऐसे नकी प्रवृत्ति जाननी ।
श्रुतज्ञान
बहुरि मतिज्ञानकरि जिस अर्थको जान्या होय तार्क सम्बन्ध अन्य अर्थको जाकरि जानिये सो कान है। सो दोय प्रकार है। अक्षरात्मक १. अनक्षरात्मक २ । तहाँ जैसे 'घट' ए दोय अक्षर सुने वा देखे सो तो मतिज्ञान भया तिनके सम्बन्ध घट पदार्थका जानना भया सो श्रुतज्ञान भया, ऐसे अन्य भी जानना । सों यह वो अमरात्मक श्रुतज्ञान है। बहुरि जैसे स्पर्शकरि शीतका जानना भया सो तो मतिज्ञान है ताकै सम्बंधते यह हितकारी नाहीं यातें भाग जाना इत्यादिरूप ज्ञान भया सो श्रुतज्ञान है, ऐसे अन्य भी जानना । यह अनक्षरात्मक श्रुतज्ञान है। तहाँ एकेन्द्रियादिक असंज्ञी जीवनिकै तो अनक्षरात्मक ही श्रुतज्ञान है अर संज्ञी पंचेन्द्रिय दोऊ है। सो बहु श्रुतज्ञान है। सो अनेक प्रकार पराधीन जो मतिज्ञान ताके भी आधीन है वा अन्य अनेक कारणनिके आधीन है, तातै महापराधीन जानना ।