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मोक्षमार्ग प्रकाशक-२२
भेली हो है ताकरि मोह के उदय का सहकार होते जीव सुखी दुःखी हो है। अर शरीरादिकनिके सम्बन्ध जीव के अमूर्त्तत्वादि स्वभाव अपने स्वार्थ को नाहीं करै है। जैसे कोऊ शरीर को पकरे तो आत्मा भी पकस्या जाय। बहुरि यावत् कर्म का उदय रहे ताक्त् बाह्य सामग्री तैसे ही बनी रहे अन्यथा न होय सके, ऐसा इन अघातिकर्मनिका निमित्त जानना।
इहां कोऊ प्रश्न करै कि कर्म तो जड़ हैं, किछू बलवान नाही, तिनकरि जीव के स्वभाव का बात होना वा बाह्य सामग्री का मिलना कैसे सम्भवै है?
ताका समाधान-जो कर्म आप कर्ता होय उद्यमकरि जीवके स्वभाव को घातै, बाह्य सामग्री को मिलादै तो कर्मकै चेतनपनों भी चाहिए अर बलवानपनों भी चाहिए सो तो है नाही, सहजही निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्थ है। जब उन कर्मनिका उदयकाल होय तिस कालविर्ष आपही आत्मा स्वभाव रूप न परिणमै विभावरूप परिणमै वा अन्य द्रव्य हैं ते तैसे ही सम्बन्धरूप होप परिणमैं । जैसे काहू पुरुषके सिर परि मोहनधूलि परी है तिसकरि सो पुरुष बावला भया तहाँ उस मोहनधूलिकै ज्ञान भी न था अर बलवानपना भी न था अर बावलापना तिस पोहनधूलि ही करि भया देखिए है। मोहनधूलिका तो निमित्त है अर पुरुष आप ही बावला हुआ परिणमै है, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बनि रह्या है। बहुरि जैसे सूर्य उदय का कालविषै चकवा चकवीनिका संयोग होय तहाँ रात्रिविषे किसी ने द्वेषबुद्धि जोरावरी करी जुदे किए नाहीं, दिवस विषै काहू ने करुणाबुद्धि नै ल्यायकरि मिलाए नाहीं, सूर्य उदयका निमित्तपाय आप ही मिले है अर सूर्यास्त का निमित्त पाय आप ही बिछुरै हैं । ऐसा ही निमित्त नैमित्तिक बनि रहा है। तैसे ही कर्मका भी निमित्त नैमित्तिक भाव जानना। ऐसे कर्म का उदय करि अवस्था होय है। बहुरि तहाँ नवीन बन्ध कैसे हो है, सो कहिए है
नूतन बन्ध विचार स्वभाव बन्ध का कारण नहीं है
जैसे सूर्य का प्रकाश है सो मेवपटलते जितना व्यक्त नाही तितने का तो तिस कालविष अभाव है बहुरि तिस मेघपटलका मन्दपनाते जेता प्रकाश प्रगटै है सो तिस सूर्य के स्वभाव का अंश है, मेघपटलजनित नाहीं है। तैसे जीवका ज्ञानदर्शन वीर्य स्वभाव है सो ज्ञानावरण दर्शनाबरण अन्तराय के निमित्ततें जितने व्यक्त नाही तितने का तो तिसकालविर्ष अभाव है। बहुरि तिन कर्मनि का क्षयोपशमते जेता ज्ञान दर्शन वीर्य प्रगटै है सो तिस जीव के स्वभाव का अंश ही है, कर्मजनित उपाधिक भाव नाहीं है। सो ऐसा स्वभाव के अंशका अनादित लगाय कबहूँ अभाव न हो है। याही करि जीव का जीवत्वपना निश्चय कीजिए है। जो यह देखनहार जाननहार शक्तिको धरे, वस्तु है सो ही आत्मा है। बहुरि इस स्वभावकरि नयीन कर्मका बन्ध नाही है। जातें निज स्वभाव ही बन्ध का कारण होइ तो बन्ध का छूटना कैसे होय। बहुरि तिन कर्मनिके उदयतै जेता ज्ञान दर्शन वीर्य अभाव रूप है ताकरि भी बन्ध नाहीं है जाते आप ही का अभाव होते अन्यको कारण कैसे होय । तातै ज्ञानावरण दर्शनावरण अन्तराय के निमिनः निपजै भाव नवीनकर्मबन्ध के कारण नाहीं।