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दूसरा अधिकार - २३
औपाधिक भाव ही नवीनबन्ध के कारण हैं
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बहुरि मोहनीय कर्म्मकरि जीव के अयथार्थ श्रद्धानरूप तो मिध्यात्वभाव हो है वा क्रोध, मान माया लोभादिक कषाय हो है । ते यद्यपि जीव के अस्तित्वमय हैं, जीवतें जुदे नाहीं, जीब ही इनका कर्ता है, जीव के परिणमनरूप ही ये कार्य हैं तथापि इनका होना मोहकर्म्म के निमित्ततें ही है, कर्म्मनिमित्त दूरि भए इनका अभाव ही है तातें ए जीव के निजस्वभाव नाहीं, उपाधिकभाव हैं । बहुरि इनि भावनि करि नवीन बंध हो हैं । तातें मोह के उदयतें निपजे भाव बंध के कारन हैं । बहुरि अघातिकर्म्मनिके उदयतें बाह्य सामग्री मिले है, तिन विषै शरीरादिक तो जीव के प्रदेशनिसों एकक्षेत्रावगाही होय एकबन्धानरूप हो हैं अर धन कुटुम्बादिक आत्मा भिन्न रूप हैं सो ए सर्व बन्ध के कारण नाहीं हैं, जातैं परद्रव्य बंध का कारण न होय । इन विषै आत्मा के ममत्वादिरूप मिथ्यात्वादि भाव हो हैं सोई बंथ का कारण जानना ।
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विशेष : पर- द्रव्य बन्ध का साक्षात् कारण नहीं होता, यह त्रैकालिक सत्य है । किन्तु इसके साथ ही यह भी जानना चाहिए कि धन कुटुम्बादिक रूप पर - पदार्थ बन्ध में कारण के कारण हैं । समयसार गाथाः २६५ की आत्मख्याति टीका में अमृतचन्द्राचार्य कहते हैं कि बाह्य वस्तुरूप आश्रय के बिना अध्यवसान (रागादिभाव ) नहीं होते (ततो निराश्रयं नाध्यवसानमिति नियमः ) तथा अध्यवसान ( रागादि भाव) ही बन्ध का कारण है । (अध्यवसानमेव बन्धहेतुः ) यह भी वही ( स.सा. २६५ आत्मख्याति में) लिखा है। इस प्रकार यह सिद्ध हुआ कि बन्ध के कारण (अध्यवसान) का आश्रय रूप कारण बाह्यवस्तु है अर्थात् बाह्यवस्तु बन्ध के कारण की कारण है । इसीलिए तो वहीं पर कहा है कि 'इसीलिए अध्यवसान की आश्रयभूत बाह्यवस्तु का अत्यन्त निषेध किया है जिससे कारण (बाह्यवस्तु ) के प्रतिषेध से ही कार्य (अध्यवसान - रागादिभाव ) का प्रतिषेध हो जाए । अमृतचन्द्राचार्य ने पुरुषार्थसिद्धयुपाय गाथा ४६ में कहा है कि "हिंसायतननिवृत्तिः तदपि परिणामविशुद्धये कार्या" अर्थात् परवस्तु से बन्ध नहीं होता तो भी परिणामों की विशुद्ध के लिए यह आवश्यक है कि बाह्य निमित्तों का भी त्याग करें। कहा भी है- परिणामों की विशुद्धि के लिए बाह्यनिमित्तों का त्याग करना भी जरूरी है। (पु. सित्युपाय पृ. १६३ पं. मुन्नालाल जी रांधेलीय का अनुवाद) इस प्रकार यह लिख हुआ कि बाह्य वस्तु बन्ध के कारण की कारण है । ( वन्यहेतुहेतुत्वे सत्यपि ) समयसार २६५ अमृतचन्द्रीय टीका ।
रागद्वेष-मोह (बन्ध के कारण) के बाह्य कारण (अर्थात् निमित्त, आश्रय, आधार, विषय) पर-पदार्थ होते हैं। यही कारण है कि यदि किसी से कहा जाए कि तुम रागद्वेष मोह करो किन्तु शुद्धात्मा के सिवाय अन्य पदार्थों में मत करो तो वह कर ही कैसे सकता है ? (वर्णी प्रवचन वर्ष ३९ अंक ९ पृ. ३३) बाह्य पदार्थों का परित्याग करने पर तज्जन्य रागभाव छूटे भी और न भी छूटे किन्तु पदार्थ के त्याग बिना रागभाव नहीं छूट सकता ।