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दृसग़ अधिकार-२५
कालपर्यंत योरी उन्मत्तता उपजादने की शक्ति है तो वह मदिरा होनपनाको प्राप्त है। बहुरि जो थोरी भी मदिरा है अर ताविषे बहुत कालपर्यंत धनी उन्मत्तता उपजावने की शक्ति है तो वह मदिरा, अधिकपनाकों प्राप्त है। तैसे घने भी कर्मप्रकृतिनिके परमाणु हैं अर तिनविषै थोरे कालपर्यन्त थोरा फल देने की शक्ति है तो के कर्मप्रकृति हीनताको प्राप्त हैं। बहुरि थोरे भी कर्मप्रकृतिनिके परमाणु हैं अर तिनविषे बहुत कालपर्यंत बहुत फल देने की शक्ति है तो वे कर्मप्रकृति अधिकपनाको प्राप्त हैं। तातें योगनिकरि भया
प्रकृतिवन्ध प्रदेशबन्ध बलवान नाही, कषायनिकरि किया स्थितिबंध अनुभागबन्ध ही बलवान है। तात . मुख्यपने कवाय ही अन्य का कारण जानना, निमको बन्धन करना होय ते कषाय भति करो।
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जड़ पुद्गल परमाणुओं का यथायोग्य प्रकृतिरूप परिणमन _ . बार इहा कोऊ प्रश्न करै कि पुद्गलपरमाणु तो जड़ है, उनके किछु ज्ञान नाहीं, कैसे यथायोग्य प्रतिरूप होय परिणम है?
___ताका समाधान-जैसे भूख होते मुखद्वारकरि ग्रह्याहुबा भोजनरूप पुद्गलपिंड सो मांस शुक्र शोणित आदि धातुरूप परिणमै है। बहुरि तिस भोजन के परमाणुनिविषे यथायोग्य कोई धातुरूप थोरे कोई धातुरूप पने परमाणु हमे है। बहुरि तिनविष केई परमाणुनिका सम्बन्ध घने काल रहे, केईनिका थोरे काल रहै, बहुरि तिन परमाणुनिविदे केई तो अपने कार्य निपजावने की बहुत शक्तिको धरै हैं, केई स्तोकशक्तिको धरै है। सो ऐसे होने विष कोऊ भोजनरूप पुद्गलपिण्ड के ज्ञान तो नहीं है जो मैं ऐसे परिणमूं अर और भी कोऊ परिणमावनहारा नाही है, ऐसा ही निमित्त-नैमित्तिक भाव बनि रह्या है, ताकरि तैसे ही परिणम्न पाइए है। तैसे ही कवाय होते योग द्वारकरि ग्रह्या हुवा कर्मवर्गणारूप पुद्गलपिण्ड सो ज्ञानावरणादि प्रकृतिरूप परिणमै
बहुरि तिन कर्म परमाणुनिविष यथायोग्य कोई प्रकृतिरूप थोरे कोई प्रकृतिरूप घने परमाणु हो हैं। बहुरि सिन वि केई परमाणुनिका सम्बन्ध घने काल रहै, केईनिका थोरे काल रहै। बहुरि तिन परमाणुनिविर्ष केई तो अपने कार्य निपजावने की बहुत शक्ति धरै है, कोऊ थोरी सक्ति धरै है सो ऐसे होनेविष कोऊ कर्मवरूप पुद्गलपिण्डकै जान तो नाहीं है जो मैं ऐसे परिणम अर और भी कोई परिणमावनहारा है नाम, ऐसा ही निमित्त नैमित्तिकभाव बनि रह्या है ताकरि तैसे ही परिणमन पाइये है। सो ऐसे तो लोकविष निमित नैमित्तिक घने ही बनि रहे हैं। जैसे-मंत्रनिमितकरि जलादिकविध रोगादिक दूरि करने की शक्ति
पाकरी आविवि सपदि रोकने की शक्ति हो है तैसे ही जीव भाव के निमित्तकार पुद्गल परमानिवि मानावरणादिरूप शक्ति हो है। इहाँ विचारकरि अपने उघमतें कार्य करे तो ज्ञान चाहिए पर तैसा निमित्त बने स्वयमेव तैसे परिणमन होय तो तहाँ ज्ञान का किछु प्रयोजन नाही, या प्रकार नकानन्य होने का विधान जानना ।