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पहला अधिकार-१५
याका अर्थ- हे पांडे! हे पांडे! हे पांडे! तू कण छोडि तुस ही कूटै है, तू अर्थ अर शब्द विषै सन्तुष्ट है, परमार्थ न जाने है, ताते तू मूर्ख ही है। ऐसा कह्या है। अर चौदह विद्यानिविषै भी पहले अध्यात्मविद्या प्रधान कही है। तातें अध्यात्मरस का रसिया यक्ता है सो जिनधर्म के रहस्य का वक्ता जानना। बहुरि जे बुद्धिऋछि के थारक हैं वा अवधिमनःपर्यय केवलज्ञान के धनी वक्ता हैं ते महान वक्ता जानने। ऐसे वक्तानिके विशेष गुण जानने। सो इन विशेष गुणनिके धारी वक्ता का संयोग मिले तो बहुत भला है ही अर न मिले तो अद्धानादिक गुणनिके थारी वक्तानिहीके मुख- शास्त्र सुनना । या प्रकार गुण के धारी मुनि या श्रावक तिनके मुखते तो शास्त्र सुनना योग्य है अर पद्धति बुद्धि करि वा शास्त्र सुनने के लोभकरि श्रद्धानादि गुणरहित पापी पुरुषनिके मुखः शस्त्र सुनना उचित नाहीं। उक्तं च
तं जिणआणपरेण य धम्मो सोयच सुगुरुपासम्मि।
अड उधिओ सल्लाओ तस्याएसस्स करणाओ।।१।। याका अर्थ- जो जिन आज्ञा मानने विषै सावधान हैं ता करि निर्ग्रन्थ सुगुरु ही के निकटि धर्म सुनना योग्य है अथवा तिस सुगुरुही के उपदेश का कहनहारा उचित श्रद्धानी श्रायक ताल धर्म सुनना योग्य है। ऐसा जो वक्ता धर्मबुद्धिफरि उपदेशदाता होय सो ही अपना अर अन्य जीवनिका भला कर है अर जो कषायबुद्धि करि उपदेश दे है सो अपना अर अन्य जीवनिका बुरा करै, ऐसा जानना । ऐसे घयता का स्वरूप कया, अब श्रोता का स्वरूप कहै है
श्रोता का स्वरूप भला होनहार है सारौं जिस जीयकै ऐसा विचार आवै है कि मैं कौन हूँ? मेरा कहा स्वारूप है? (अर कहाते आकर यहां जन्म धास्था है और मरकर कहाँ जाऊंगा?') यह चरित्र कैसे बनि रह्या है? ये मेरे भाव हो है तिनका कहा फल लागेगा, जीय दुःखी होय रह्या है सो दुःख दूरि होने का कहा उपाय है, मुझको इतनी बातनिका ठीककरि किछू मेरा हित होय सो करना ऐसा विचारतें उद्यमवंत भया है। बहुरि इस कार्य की सिद्धि शास्त्र सुननेते होती जानि अति प्रीतिकार शास्त्र सुनै है, किछू पूछना होय सो पूछ है। बहुरि गुरुनिकरि कमा अर्थको अपने अन्तरंगविषे बारम्बार विचार है बहुरि अपने विचार सत्य अर्थनिका निश्वयकरि जो कर्तव्य होय ताका उद्यमी हो है, ऐसा तो नवीन श्रोता का स्वरूप जानना। बहुरि जे जैनधर्म के गाड़े श्रद्धानी है अर नाना शास्त्र सुननेकरि जिनकी बुद्धि निर्मल भई है। बहुरि व्यवहार निश्चयादिक का स्वरूप नीके जानि जिस अर्थको सुने हैं ताको यथावत निश्चय जानि अवधारै है। बहुरि जब प्रश्न उपजै है तब अति विनयवान होय प्रश्न कर है।' अथवा परस्पर अनेक प्रश्नोत्तर करि वस्तु का निर्णय करै है,
१. यह पंक्ति खरड़ा प्रति में नहीं है, अन्य सब प्रतियों में है। इसी से आवश्यक जान यहाँ दे दी गई है। २. यहाँ इतना विशेष समझना चाहिए कि जो दूसरों की बुद्धि परखने के लिए ही प्रायः प्रश्न करते हैं, ऐसे श्रोताओं का
यह कृत्य परस्त्रीसंग तुल्य है (परस्त्री के स्वाद परखने तुल है) बनारसीदासजी ने कहा भी है - 'परनारी संग परबुद्धि को परखिवी' नाटकसमयसार साध्यसापकद्वार। छन्द २६। उत्तरार्ध ।